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७४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
जरूरत है— हम अंधकार से प्रकाश की ओर जाएं । भगवान् महावीर ने कहा- साधक यह संकल्प करे
"अन्नाणं परियाणामि नाणं उवसंपज्जामि"- मैं अज्ञान को छोड़ता हूं और ज्ञान को स्वीकार करता हूं- यह मंगल भावना है । वैदिक साहित्य में भी मिलता है— “तमसो मा ज्योतिर्गमय'- मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
मनुष्य की सदा भावना रही है- अंधकार से प्रकाश की ओर जाना । पर भावना तब तक पूरी नहीं होती जब तक उसकी प्राप्ति का साधन ठीक न मिल जाए | जब तक उसका उपाय ठीक न हो जाए। भावना होना एक बात है और उपाय होना एक बात है । कुछ लोग भावना रखते हैं पर सम्यग् उपाय हाथ में नहीं आता तो भावना को सफल नहीं कर पाते ।
एक बहुत मार्मिक कहानी है । सास ने बहू से कहा- बहूरानी, आज मैं कहीं जा रही हूं। तुम नयी-नयी आई हो, पर मेरे घर का यह नियम है कि रात को अंधेरा नहीं होना चाहिए | तुम ध्यान रखना घर में अंधेरा न आ जाए । अंधेरा न हो जाए। इस बात का पूरा ध्यान रखना । बहू नयीनयी थी । नयी होना कोई खास बात नहीं | पर भोली थी | बहुत भोली, हद से ज्यादा भोली | सास बाहर चली गयी । संध्या हुई । अंधेरा होने लगा। बहू ने सारे दरवाजे और खिड़कियां बंद कर दीं । अंधेरा घना हो गया । वह लाठी से अंधेरे को पीटने लगी । हाथ लहूलुहान हो गये । अंधेरा बना रहा । सास आयी । बहू से पूछा । उसने लहू रिसते हाथ आगे कर दिये ।
सास बोली- क्या दरवाजे बंद करने से और लाठियां पीटने से अंधेरा गया है ! बहू बोली- तो कैसे जाता है ! सास ने हाथ में दियासलाई ली
और दो चार दीवटों पर दीये जलाये- एकदम प्रकाश हो गया । सास बोलीपीटने से अंधकार नहीं जाता । अंधकार जाता है दीया जलाने से ।। ___मुझे लगता है, हम लोग भी शायद लाठियां बजाने में बहुत कुशल हैं । केवल लाठियां बजा-बजाकर अंधेरे को मिटाना चाहते हैं । पर यथार्थ उपाय नहीं जानते । बिजली जलाना नहीं जानते | प्रकाश करना नहीं जानते । प्रकाश करने का उपाय होता है । जो व्यक्ति उपाय को नहीं जानता, उसके हाथ में कोरी पकड़ की बात सामने आती है। वह कोरा पकड़ लेता है और इतना
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