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________________ अंधकार से प्रकाश की ओर / ७५ तेज पकड़ता है कि उसे छोड़ना भी पसंद नहीं करता। किंतु जब तक कोई उपाय बताने वाला न मिले, उपाय समझ में न आए, तब तक अंधकार मिटता नहीं । अहंकार को मिटाना, ममकार को मिटाना बहुत लोग चाहते हैं पर कोई उपाय हाथ नहीं लगता । तब तक अहंकार भी बढ़ता जाता है, ममत्व भी बढ़ता जाता है । मैं धार्मिक लोगों से प्रश्न किया करता हूं कि आपको धर्म करते-करते बीस वर्ष, तीस वर्ष, पचास वर्ष, साठ वर्ष हो गए । बताएं कि आपके जीवने में क्या परिवर्तन आया । आपके स्वभाव में क्या परिवर्तन आया । आपका क्रोध कम हुआ या नहीं? आपका अहंकार, लोभ, क्रूरताकम हुई या नहीं ? उत्तर मिलता है— ऐसा तो नहीं हुआ। तो फिर क्या किया? धर्म का परिणाम क्या हुआ? फल क्या हुआ? जब हमारी दृष्टियां नहीं बदलतीं, हमारी आदतें नहीं बदलतीं, हमारा स्वभाव नहीं बदलता, ज्यों के त्यों सारे अडंगे चलते हैं तो आर्थिक उपासना का प्रयोजन ही क्या रहा ! साधना का अर्थ होता है-स्वभाव का परिवर्तन । साधना का अर्थ होता है वृत्तियों का परिवर्तन । कोई आदमी क्रूर है और कोमल नहीं बनता, कोई आदमी नशा करने वाला है, मादक वस्तुओं का सेवन करने वाला है, वह सात्विक वस्तुओं का सेवन करने वाला कभी नहीं हो सकता । कोई व्यक्ति अहंकार और क्रोध में चूर रहता है, वह विनम्र और शान्त नहीं बनता तो मान लेना चाहिए कि धर्म के नाम पर कोई अधर्म का आचरण ही हो रहा है | आजकल ऐसी विडम्बना हो गई कि आदमी दिन भर बुराइयां करता है और शाम के समय या प्रातःकाल प्रार्थना करता है, कुछ जप करता है, ध्यान करता है और दोहराता है— "प्रभु, मेरे अवगुण चित ना धरो ! समदर्शी है नाम तिहारो, चाहो तो पार करो ।' बस ! इतने में ही छुट्टी पा लेता है और दूसरे दिन फिर पूरी तैयारी के साथ बुराई करने में जुट जाता है | यह मान लेता है कि बुराई तो मैंने की पर प्रभु की आराधना भी मैंने की है। पहले का सारा साफ हो गया है, आज बुराई करूंगा तो वह भी शाम को साफ कर दूंगा । तो बुराई करने में कोई कठिनाई नहीं । कैसी बिडम्बना ! धर्म को आदमी ने बुराई को पालने का साधन बना रखा है। कुछ लोग खाने के लोलुप होते हैं । वे सामान्य भोजन भी नहीं पचा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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