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७६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
पाते । पर पत्थर-हज्म चूर्ण आदि के द्वारा खूब खाते जाते हैं। मुझे प्रतीत होता है कि आज लोगों ने भी धर्म को बुराई (पत्थर) -हज्म चूर्ण बना रखा है कि चाहे जितना पाप करो, धर्म कर लेंगे, सारा साफ हो जाएगा । तो धर्म जो एक उपाय है अहंकार को मिटाने का, ममकार को मिटाने का, बुराइयों को मिटाने का, उसका उपाय के रूप में हम प्रयोग नहीं कर रहे हैं किन्तु अपाय और अधिक बढ़ाने का प्रयोग कर रहे हैं। यह बात जब तक समझ में नहीं आती तब तक हमारा अंधकार मिटने वाला नहीं । अंधकार और बढ़ता चला जाता है ।
मैं सोचता हूं, हमें आज धर्म पर पुनर्विचार करना चाहिए । और धर्मक्रांति होनी चाहिए । पुनर्विचार की जरूरत इसलिए है कि धर्म से आदमी को जितना लाभ मिलना चाहिए, वह लाभ कहां मिल रहा है । धर्म एक अनुशासन है, धर्म एक भय भी है, लज्जा है, एक संयम है । आदमी को अभय होना चाहिए, किसी डर से डरना नहीं चाहिए । बात बिलकुल ठीक है कि डरना नहीं चाहिए । पर कुछ रचनात्मक भी होता है, वह जीवन का निर्माण करता है । ध्वंसात्मक भय जीवन का विघटन करता है ।
जिन लोगों में गुरु के प्रति या उपाय के प्रति आस्था का भाव नहीं होता वे लोग सफल नहीं होते । उन्हें आगे बढ़ने के लिए, प्रकाश की ओर जाने के लिए सहारा चाहिए । अगर वह सहारा नहीं मिलता है तो जीवन में प्रकाश नहीं मिलता । सबसे बड़ा प्रकाश होता है हमारा अन्तर्ज्ञान । अन्तर्ज्ञान तब तक नहीं जागता जब तक अच्छा गुरु नहीं मिलता। अच्छा मार्गदर्शक, अच्छा उपाय और अच्छा सहारा नहीं मिलता ।
आप लोगों ने सुना होगा, आजकल पूरे संसार में एक बात चल रही है कि तीसरा नेत्र खुलना चाहिए। जो शिव की उपासना करने वाले हैं उन्होंने शिव की मूर्ति में देखा है कि ललाट में एक आंख होती है । वह तृतीय नेत्र होता है | यह तीसरी आंख जब तक नहीं खुल जाती तब तक कोई अच्छा धार्मिक नहीं बनता और अंधकार से प्रकाश में जाने की बात समझ में नहीं आती । जब यह तीसरी आंख खुलती है तो सारी बातें बदल जाती हैं । धन के प्रति इतना मोह है कि शायद दुनिया में किसी के प्रति नहीं है । माता-पिता, पति-पत्नी - सबके प्रति मोह होता होगा पर जब धन का
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