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अंधकार से प्रकाश की ओर
'रे पक्षिन्नागतस्त्वं कुत इह सरसस्तद् कियद् भे विशालं, किं मद् धाग्नोऽपि बाढू न हि न हि महत् पाप ! मा ब्रूहि मिथ्या । इत्थं कूपोदरस्थः सपदि तटगतो दर्दुरो राजहंसं,
नीचः स्वल्पेन गर्वी भवति ह विषय नाऽपरे येन दृष्टाः ।।' एक राजहंस कुएं की मेंढ पर आकर बैठा । कुएं में एक मेंढक रहता था । उसने हंस को देखकर पूछा- 'पक्षिन् ! कहां से आए हो ?'
'मैं मानसरोवर से आ रहा हूं।'
'कितना बड़ा है तुम्हारा मानसरोवर ? क्या मेरे इस घर (कुएं) से भी बड़ा है !'
'हां, इससे बहुत बड़ा है ।'
'झूठ बोल रहे हो । मेरे सामने झूठ बोलते शर्म नहीं आती ! मेरे घर से बड़ा तुम्हारा घर हो नहीं सकता ।'
'मेंढक ! तू सदा कुएं में ही रहा । कभी इससे बाहर आया ही नहीं । तू नहीं जानता कि यह संसार कितना बड़ा है ! इस विराट् संसार में कितने बड़े-बड़े जलाशय हैं, नदियां हैं, समुद्र हैं । तूने देखा ही क्या है !'
यदि कुएं में बैठा-बैठा मेंढ़क ऐसी गर्वोक्ति करता है, तो कोई आश्चर्य नहीं होता । क्योंकि जो नीचे रहने वाला है वह बहुत थोड़े में अहंकारी बन जाता है | उसने कभी विशाल को देखा ही नहीं । उसमें अहंकार आ ही जाता है। जो विशाल को देखता है, विराट का अनुभव करता है, उसमें कभी अहंकार नहीं आता । जो नीचे-ही-नीचे देखता है, वह अहंकार से दब जाता है । एक संस्कृत कवि ने कहा है—
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