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६० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता लगेगा, क्योंकि जब आदमी वस्तुनिष्ठ होता है तब उसमें आकांक्षाएं उभरती हैं। वह चाहता है, यह हो, वह ो । वस्तु का अन्त ही नहीं आता । जैसे ही निष्ठा वस्तु से हटकर श्वास के साथ जुड़ती है तब आकांक्षा कम हो जाती है। श्वास के प्रति अनुराग बढ़ेगा तो वस्तु के प्रति विराग होगा। अभी आदमी का अनुराग वस्तु के प्रति है इसलिए श्वास के प्रति उसका विराग है। अनुराग का केन्द्र बदल दो, विराग का केन्द्र भी बदल जाएगा। श्वास-दर्शन से आन्तरि परिवर्तन होता है और आसक्ति कम होती है। गीता कहती है—फलासक्ति न हो । सिद्धांत अच्छा है, बात अच्छी है । पर यह हो कैसे? यह जटिल समस्या है । गीता का श्लोक मा फलेसु कदाचन रटने मात्र से तो अनासक्ति घटित नहीं होगी। कोई उपाय करना होगा । सिद्धांत सिद्धांत होता है । उसको हजार बार रटने पर भी आसक्ति कम नहीं होगी, फलासक्ति टूटेगी नहीं । फलासक्ति को तोड़ने के लिए उपाय करना होगा।
श्वास-दर्शन फलासक्ति को तोड़ने का अचूक उपाय है । उपाय किए बिना यही प्रतीत होगा कि लिखने वाले कोई दूसरी भूमिका के आदमी थे। उन्होंने हमारी भूमिका को ध्यान में नहीं रखा । उपाय का अभ्यास करते ही यह धारणा टूट जाएगी, सिद्धांत फलित होने लगेगा।
श्वास-दर्शन से पांचवां स्वभाव जो मिथ्या दृष्टिकोण का है, वह भी बदलेगा हमें स्पष्ट अनुभव होने लगेगा कि हमने वस्तुओं को अधिक मूल्य दिया है और श्वास को कम । श्वास को मूल्य देने का अर्थ है श्वास को स्वस्थ रखना । जब श्वास शुद्ध है, तब दृष्टिकोण मिथ्या नहीं बन सकता। दृष्टि मिथ्या तब होती है जब मूल्य देने में विपर्यय होता है । जब जिसका जितना मूल्य होता है, उतना नहीं दिया जाता है तब दृष्टि में मिथ्यात्व आता है | श्वास-दर्शन से मूल्यांकन की क्षमता और यथार्थता बढ़ती है । इससे दृष्टिकोण बदल जाता है।
श्वास-दर्शन एक सहज, सरल प्रक्रिया है । इस एक प्रक्रिया के द्वारा पांचों स्वभावों में परिवर्तन घटित होता है ।
मैंने उपाय की चर्चा की तो साथ-साथ उपाय भी बताए । हर उपाय के लिए उपाय है । बीमारी है तो उसको नष्ट करने वाली औषधि भी होनी चाहिए । प्राचीन आचार्यों ने, ऋषि-मुनियों ने हजारों प्रकार के उपाय निर्दिष्ट
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