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________________ ४२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कैसे बनेगा ? व्यक्ति को शक्तिशाली बनने के लिए अहिंसा की जरूरत है। अहिंसा नहीं है तो जो शक्ति आयी वह हिंसा के द्वारा खर्च हो गई । हिंसक व्यक्ति सोचता है कि दूसरे की शक्ति को खर्च कर दूं, किन्तु अपनी शक्ति चुक जाती है। दूसरों की निन्दा करने वाला, चुगली करने वाला, ईर्ष्या करने वाला, जलने वाला, मन मे दाह रखने वाला व्यक्ति अपनी शक्ति के भंडार को विकसित नहीं कर सकता । दूसरों के प्रति बुरे विचार के रखने वाला कोई भी अपनी शक्ति के संग्रह को बढ़ा नहीं सकता । ये सारे शक्ति के चुकने के कारण हैं, न होने के कारण हैं । अहिंसा का उपदेश समाज के कल्याण के लिए किया गया हो, यह शायद दूसरी बात हो सकती है। पहली बात है कि अहिंसा के बिना व्यक्ति शक्तिशाली नहीं बन सकता । यह रहस्य समझ में आ जाए तो अहिंसक बनना बहुत आसान बात है । दूसरों के कल्याण के लिए कोई आदमी सोचे या न सोचे, अपने कल्याण की बात तो सोच सकता है और इस सचाई को स्वीकार कर सकता है कि अहिंसा इसलिए जरूरी है कि उससे हमारे व्यक्तित्व का विकास होता है । कुछ दिन पहले आचार्यवर के पास कुछ भाई बैठे थे । उन्होंने कहा कि यदि ब्रह्मचर्य का सिद्धान्त मान्य हो गया तो सारी सृष्टि समाप्त हो जाएगी । रेलवे कर्मचारी थे। बड़ी चिन्ता प्रकट की । आचार्यश्री ने कहा -- सृष्टि समाप्त हो जाएगी, नहीं होगी, इसकी चिन्ता आप छोड़ दें। पहले ब्रह्मचारी बनकर तो देखें । बहुत बार सचाई को हम तर्क में उलझा देते हैं । ब्रह्मचारी रहा नहीं जाता और चिन्ता होती है सृष्टि के समाप्त हो जाने की । सृष्टि तो कब समाप्त होगी पता नहीं, पर अब्रह्मचर्य के द्वारा आपकी शक्ति तो समाप्त हो ही जाएगी । ब्रह्मचर्य का उपदेश इसलिए दिया गया कि व्यक्ति की शक्ति खर्च न हो । शक्ति का अर्जन और शक्ति का विसर्जन भी चलता रहे । यह कैसे हो ? अर्जन और विसर्जन के बीच तीसरी बात होती है सुरक्षा की, रक्षण की, संरक्षण की । कुछ लोग सेविंग करना जानते ही नहीं, जितना कमाया उतना ही खर्च कर दिया । चिन्ता की कोई बात नहीं, रात को डर भी नहीं कि कोई चोरी हो जाए । बिलकुल निश्चित हैं । उस स्थिति में कोई बड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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