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प्राणशक्ति का आध्यात्मिकीकरण | ४१ ध्यान करने वाला व्यक्ति, महाप्राण की साधना करने वाला व्यक्ति, प्राण की शक्ति को कम करता चला जाता है । सूक्ष्म करता चला जाता है | एक मिनट में १२, १०, ८, ६, ४, २, १ । एक मिनट में एक श्वास और दो मिनट में एक श्वास चलता चले । चलते-चलते यह स्थिति आएगी कि पन्द्रह दिनों में एक श्वास, एक महीने में एक श्वास । यह बहुत बड़ा रहस्य हमारे सामने है।
_ जैन आगम समवायांग सूत्र का अध्ययन करने वाला व्यक्ति इस रहस्य को पकड़ सकता है । इस ग्रन्थ में देवताओं के आयुष्य की चर्चा की गई है। एक सागर का आयुष्य दो, तीन, चार यावत् तेंतीस सागर का आयुष्य । सागर काल की अवधि की संज्ञा है । इस आयुष्य के साथ-साथ देवताओं के श्वासोच्छ्वास की अल्पता भी बराबर चलती रहती है । जैसे-जैसे श्वासोच्छ्वास की मात्रा घटती जाती है, आयु बढ़ती चली जाती है । पन्द्रह दिन से श्वास, एक महीने से श्वास, दो महीने से श्वास, चार महीने से एक बार श्वास, छह महीने में एक बार श्वास, जैसे-जैसे श्वास की संख्या घटती जाएगी, दूरी बढ़ती चली जाएगी, वैस ही आयु बढ़ती चली जाएगी । इसका अर्थ है कि शक्ति खर्च होनी कम होती चली जाएगी । यह महाप्राण की साधना है। महाप्राण की साधना करने वाला व्यक्ति शक्ति का अक्षय भण्डार बन जाता है । अपनी शक्ति को इतना विकसित कर लेता है कि वह अनेक दिशाओं में उसका जैसे चाहे वैसे उपयोग कर लेता है । जिसके पास शक्ति है ही नहीं वह उसका क्या उपयोग करेगा ? |
मूल बात है शक्ति का भंडार होना चाहिए, शक्ति का संचय होना चाहिए। जो प्राण की साधना को नहीं जानता वह शक्ति का संग्रह नहीं कर सकता । शक्ति आती है और चुक जाती है, संचय कभी होता ही नहीं ।
पर शक्ति-संचय की बात को अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में भी सोचें । अहिंसा प्राणशक्ति का आध्यात्मिकीकरण है । कुछ लोग कहते हैं—अहिंसा की प्रतिष्ठा होनी चाहिए, क्योंकि वह समाज के लिए बहुत जरूरी है । अगर अहिंसा न रहे तो समाज कैसे चलेगा? मुझे लगता है कि यह तर्क मूलतः ठीक नहीं है । समाज के लिए अहिंसा जरूरी होगी, किन्तु अहिंसा व्यक्तिव्यक्ति के लिए भी जरूरी होगी। अगर अहिंसा नहीं है तो व्यक्ति शक्तिशाली
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