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सत्यनिष्ठा | १५३
आज सर्वत्र द्वन्द्व है । भीतर के प्रकंपन और प्रकार के हैं, बाहर भिन्न प्रकार का प्रदर्शन हो रहा है । भीतर और बाहर में जो दूरी है, वह मिटनी चाहिए । यह दूरी तब मिट सकती है, जब दृटिकोण परिष्कृत हो । एक प्रकार से यह सत्य गणित का सत्य है । आज के व्यावहारिक जगत् में गणित का सत्य सबसे बड़ा सत्य है । गणित में कोई भूल नहीं होती ।
एक आदमी आया । उसने कहा- मन में आप कुछ सोच लें । सोच लिया । उसने पूछा- क्या सोचा ? सोचने वाले ने कहा- गुलाब का फूल | फिर उसने कहा- किसी पन्ने पर दो पंक्तियां लिखकर पन्ने को मरोड़कर मुझे दे दें। वैसा ही किया गया । उसको कुछ भी ज्ञात नहीं था कि पन्ने में क्या लिखा है। उसने गणित किया और गणित के आधार पर दोनों पंक्तियां सामने रख दी।
आपको आश्चर्य होगा कि कितना बड़ा ज्ञानी है वह । बिना देखे, बिना जाने उसने कैसे जान लिया कि कागज के टुकड़े पर क्या लिखा है । पर गणित के नियम को जानने वाले को यह आश्चर्य नहीं होगा, वह जानता है कि ऐसा किया जा सकता है । ज्योतिष-विज्ञान, गणित-विज्ञान- ये सारे नियमों की व्याख्या करने वाले विज्ञान हैं । इनमें आश्चर्य की कोई बात नहीं
विज्ञान की बहुत सारी बातें आश्चर्यजनक लगती हैं । एक रेशमी कपड़ा है । उस पर अंगारा रखा और उस अंगारे पर मूंगा रख दिया | अब वह अंगारा रेशमी कपड़े को कैसे नहीं पकाएगा ? आश्चर्य उसी को होगा जो नियम को नहीं जानता । यह सामान्य बात है कि मूंगे में ताप अवशोषण की क्षमता है । वह अंगारे के ताप का शोषण कर लेता है, कपड़ा जलता नहीं । प्राचीनकाल में रत्नकंबल बनते थे। उनकी धुलाई अग्नि से होती थी। वे अग्नि में नहीं जलते थे, क्योंकि उनमें ताप-अवशोषण की क्षमता होती थी । ईंटें भी ऐसी होती हैं, जिन पर अग्नि का कोई प्रभाव नहीं होता ।
नियमों को जान लेने पर आश्चर्य जैसा कुछ नहीं रहता । हम स्थूल चेतना के नियमों को जानें, सूक्ष्म चेतना के नियमों को जानें । इसका तात्पर्य है कि हम स्थूल शरीर के नियमों को जानें और कर्म शरीर के नियमों को भी जानें । इन नियमों के ज्ञात होने पर सत्य की चेतना बहुत स्पष्ट हो जाती है ।
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