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१५४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
आदमी की प्रकृति चंचल होती है । उसका रूप क्षण-क्षण बदलता है । 'क्षणे रुष्टः क्षणे तुष्टः, रुष्टतुष्टः क्षणे क्षणे' । आदमी एक क्षण में क्रोध से लाल हो जाता है और एक क्षण में वीतराग जैसा बन जाता है, क्षमाशील बन जाता है । मोह के कारण आदमी चंचल होता है । भीतर में चंचलता के और वीतराग के दोनों संस्कार संचित हैं । भीतर में जब मोह का संस्कार बढ़ता है, तब आदमी चंचल बन जाता है और जब मोह का संस्कार उपशान्त रहता है, तब आदमी वीतराग - सा बन जाता है । कभी-कभी आदमी वीतराग का मुखौटा धारण कर वीतराग-सा दिखाई देने का नाटक रचता है । कोई आदमी गुस्से में लाल हो रहा है। उससे कहा जाये कि गुरु आ रहे हैं, तुम्हारे अधिकारी आ रहे हैं, तो वह शांत हो जाएगा । तत्काल ऐसे बैठ जायेगा, जैसे कोई वीतरागी बैठा हो ।
बचपन की घटना है | हम कुछ बालमुनि तुलसी के पास पढ़ते थे मुनि तुलसी का अनुशासन कठोर था । हमारे भीतर की प्रेरणा थी कि हम बालमुनि परस्पर बातें करें। मुनि तुलसी चाहते थे कि हम अध्ययन में मन लगाये रहें । भीतर और बाहर का यह संघर्ष था । भीतर की प्रेरणा प्रबल होती थी । जब कभी मुनि तुलसी कार्यवश बाहर जाते तो हम पूर्व योजना के अनुसार एक साधु को सीढ़ियों में चौकीदारी करने बिठा देते और शेष गप्पें मारने लग जाते । ज्यों ही मुनि तुलसी के पैरों की आहट सुनाई देती, वह साधु सबको सावधान कर देता और तब हम सब पाठ याद करने लग जाते ।
बाहर
यह द्वैध सर्वत्र दिखाई देता है । आदमी भीतर में कुछ और है, में कुछ और दिखाई देना चाहता है । यह द्वन्द्व है । सत्य का अवतरण तंब होता है, जब भीतर और बाहर का यह द्वन्द्व समाप्त हो जाता है । सत्य तब उपलब्ध होता है या भीतर और बाहर की दूरी तब मिटती है जब हम भीतर के विकारों का शोषण करना सीख जाते हैं। कोरा सत्य का ज्ञान, कोरा सत्य का बोध, कोरा सत्य का संगान करने से कुछ नहीं होता । वह प्राप्त होता है विचार या मोह के उपशमन से ।
इस दृष्टि से हम मूल प्रश्न पर आ जाते हैं— साधना किसलिए ? साधना का एकमात्र उद्देश्य है विकारों का उपशमन । भीतर के उपद्रव, विकार, बुराइयां और भीतर की बीमारियां जितनी कम होती जाएंगी, उतना
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