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१५२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
इसलिए रोग की चिकित्सा कराते समय, डॉक्टर और वैद्य का परामर्श लेते समय अपने स्वयं के डॉक्टर और वैद्य से भी परामर्श ले लें । दोनों का योग होने पर रोग जल्दी मिट सकता है | डॉक्टर का परामर्श होगा, अमुक बीमारी है तो अमुक दवा लो | यह परामर्श लेने के बाद फिर स्वयं से पूछो, रोग का कारण कर्म तो नहीं है ? संस्कार तो नहीं है ? मैंने कोई ऐसा आचरण तो नहीं किया है, जिससे यह रोग उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार की बीमारी किस-किस कर्म के उदय से उत्पन्न हो सकती है ? इसका प्रायश्चित क्या हो सकता है । यदि ये दोहरे प्रयोग —डॉक्टर और वैद्य का परामर्श और
औषधि तथा स्वयं के चिन्तन से उचित कर्म का उचित प्रायश्चित—चले तो रोग बहुत जल्दी मिट सकता है । इन दोनों विधियों का प्रयोग होना चाहिए । साधु-साध्वियों के लिए यह बहुत आवश्यक है ।
दूरी को मिटाना बहुत जरूरी है । भीतर और बाहर की दूरी मिटनी चाहिए । असत्य कहां पनपता है ? आदमी भीतर में तो अनेक विकारों का पालन-पोषण कर रहा है और बाहर से अपने आपको साफ-सुथरा प्रदर्शित करता है, वहां असत्य पनपता है । वहां माया की दुर्बलता मुझे सताती है तो वहां असत्य नहीं पनपेगा । कोई यह मानकर चले कि आज साधु बना है और आज सिद्ध हो गया, यह बहुत बड़ी भ्रान्ति होगी । जब तक यह भ्रान्ति नहीं निकलेगी तब तक सत्य की संभावना कम होगी । दीक्षा के दिन से ही कोई यह दिखाना चाहे कि उसके सारे विकार शान्त, सारी वासनाएं और बुराइयां शान्त, यह भ्रम है | अभी तो साधना में पैर रखा है । सिद्धि बहुत दूर है । पहले चरण में ही यदि मंजिल पाने की बात सोच ली जाती है तो वहां भ्रम होता है । अपने में भ्रान्ति और दूसरों में भ्रान्ति । भ्रान्ति मिटनी चाहिए कि साधना के लिए प्रस्थान किया है, यात्रा शुरू की है, अभी मंजिल तक नहीं पहुंचे हैं । इस अवस्था में मोहनीय कर्म के सारे विपाक रहते हैं । उसमें डर भी है, मूर्छा भी है, आकांक्षा भी है । अतः यहां साधना के लिए मार्गदर्शन अपेक्षित होता है । उसे यह जानना चाहिए कि अमुक विकार या दोष सता रहा है । उसके निवारण के लिए कौन-सा उपाय कारगर हो सकता है ? उपाय की खोज़ साथ-साथ चलनी चाहिए | उपाय की खोज सत्य की खोज है । इससे सत्य का विकास होगा, सत्य जीवन का केन्द्र बनेगा ।
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