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सत्यनिष्ठा | १५१
वस्तु जगत् के नियम, चेतन जगत् के नियम- ये दो प्रकार के नियम हैं। वस्तु जगत् के नियमों को जानना अस्तित्ववादी सत्य है और चेतना जगत् के नियमों को जानना उपयोगितावादी सत्य है, साधना का सत्य शास्त्र है।
कर्मशास्त्र पूरा का पूरा नियमशास्त्र है | जो कर्म किया जाता है, वह अमुक अमुक समय तक अपरिपाक, अनुदय की स्थिति में रहता है । उसे अबाधकाल कहा जाता है । जब वह उदय में आता है तब फल देना प्रारम्भ करता है | इस प्रकार कर्म का शास्त्र चेतना के नियमों का शास्त्र है ।
एक आदमी छिपकर कर्म करता है और इतनी चतुराई से करता है कि किसी को पता ही नहीं चलता । पूजा-प्रतिष्ठा में कोई कमी भी नहीं आती । पद बना रहता है । बड़प्पन और साधुत्व बना का बना रहता है। किसी को कोई अनुभव ही नहीं होता कि इसने यह जघन्य कार्य किया है । आदमी स्थूल जगत् से तो छिपा लेता है । उसके पास छिपाने के अनेक साधन हैं | उसके पास अंधेरा है, एकान्त है, आंखमिचौनी है, कपड़े है । वह छिपाना जानता है । वह छिपाने में निपुण है | स्थूल जगत् में उसके छिपाव को कोई जान नहीं पायेगा, पर क्या वह सूक्ष्म जगत से भी छिपाने में भी सक्षम हो सकेगा ? सूक्ष्म जगत् से कभी नहीं छिपा पायेगा । आदमी जो भी आचरण करेगा, उसका अंकन सूक्ष्म शरीर में अवश्य होगा । उसको नकारा नहीं जा सकता । इस अंकन से बचा नहीं जा सकता । वह अंकन होकर रहेगा और वह अपना फल अवश्य ही देगा ।
अनेक शारीरिक और मानसिक बीमारियां ऐसी होती हैं, जिनको डॉक्टर भी नहीं पकड़ पाते और यंत्र भी उन्हें नहीं पकड़ पाते । सब व्यर्थ हो जाते हैं । इसका कारण है कि वे बीमारियां शारीरिक नहीं, मानसिक नहीं किन्त कर्म से निष्पादित हैं । इस तथ्य को आयुर्वेद के आचार्यों ने बहुत ही सूक्ष्मता से पकड़ा । उन्होंने कहा- बीमारी केवल शरीर के दोषों से ही नहीं होती। सारी बीमारियां वात, पित्त और कफ के दोषों से ही नहीं होती । बीमारी केवल बाहरी वातावरण से ही पैदा नहीं होती । बीमारी का एक कारण कर्म भी है । जो संस्कार किया है, वह भी बीमारी का कारण बनता है । जिस बीमारी का कारण कर्म होता है, वह बीमारी दवाइयों से ठीक नहीं होती । कोई भी वैद्य या डॉक्टर उसे नहीं मिटा सकता । उसकी सही दवाई है प्रायश्चित ।
पारपत।
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