________________
१९४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता बन गया है कि आज असदाचार, अप्रामाणिकता आदि दुर्गुण बहुत व्यापक हो गए हैं। लोग पूछते हैं कि जब भारत में इतने धर्म हैं, इतने साधु-संन्यासी हैं, इतने धर्मगुरु हैं, फिर भी ये बुराइयां क्यों नहीं मिटतीं ? इस पर मैंने गंभीरता से सोचा तो मुझे प्रतीत हुआ कि धर्म का तथा असदाचार और भ्रष्टाचार का कोई बुहत बड़ा संबंध नहीं है । इसलिए नहीं है कि जो लोग धर्म को नहीं मान रहे हैं वे भी भ्रष्टाचार कर रहे हैं और जो लोग धर्म को मानते हैं वे भी भ्रष्टाचार कर रहे हैं। कोई अन्तर नहीं दिखाई देता । इस प्रश्न का संबंध आध्यात्मिकता के साथ अवश्य जुड़ता है । यदि आदमी आध्यात्मिक है और भ्रष्टाचार करता है तो प्रश्न होता है कि आध्यात्मिक हो गया, फिर भ्रष्टाचार कैसे रह गया ? सचमुच यह तर्क आएगा कि आध्यात्मिक व्यक्ति भ्रष्टाचार नहीं कर सकता और जो भ्रष्टाचार करता है वह आध्यात्मिक हो ही नहीं सकता । यह एक निश्चित व्याप्ति है ।
श्रीमद् राजचंद्र आध्यात्मिक व्यक्ति थे । जैन संस्कारों में पले । छोटी अवस्था, किन्तु आध्यात्मिक चेतना इतनी प्रखर हो उठी थी कि वे जवाहरात का व्यापार करते हुए भी उस चेतना से ओतप्रोत रहते । एक बार हीरों का सौदा किया । भाव बढ़ गए । सामने वाले व्यक्ति को भारी नुकसान हो रहा था । वह अन्दर ही अन्दर गल रहा था | श्रीमद् राजचंद्र को ज्ञात हुआ । उन्होंने उस व्यापारी को बुला भेजा । वह आया । उन्होंने सौदे का प्रतिबंधित कागज लिया और उसके टुकड़े-टुकड़े करते हुए कहा-'राजचन्द्र दूध पी सकता है, किसी का खून नहीं पी सकता ।' यह है आध्यात्मिकता । आध्यात्मिक व्यक्ति कभी असदाचार नहीं कर सकता। किन्तु धार्मिक कहलाने वाले की यह इयत्ता नहीं है | आज के धार्मिक कहलाने वाले व्यक्ति में कोरी उपासना की चेतना विकसित है । वह व्यक्ति बड़े से बड़ा अनर्थ भी कर सकता है । इसलिए यह प्रश्न इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इतने धार्मिक आदमी हैं, इतने उपासनागृह हैं, फिर भी बुराइयां नहीं मिट रही हैं । बुराइयां मिट ही नहीं सकतीं । उपासना धर्म में वह शक्ति है ही नहीं कि वह बुराइयों को मिटा दे । आध्यात्मिक धर्म में वह बल है कि वह बुराइयों को मिटा सकता है । पर आज लोग धार्मिक अधिक हैं, आध्यात्मिक कम । सारे व्यक्ति आध्यात्मिक बन जाएं, यह कभी संभव नहीं है । उनका प्रतिशत कम ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org