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३२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता __हम इतने ज्यादा परिचित हो गए इससे कि इसका पूरा मूल्य नहीं आंकते । यह ज्यादा परिचित होना खतरनाक होता है । बहुत परिचित हो जाने पर ठीक मूल्यांकन नहीं होता है । हम समझ लेते हैं कि यह ठीक है | जब रहता है तो ठीक मूल्यांकन होता है | हम इतने निकट हैं और हमारी प्राणशक्ति, प्राण-विद्युत् इतनी निकट है कि हम सही मूल्यांकन नहीं कर पाते । यदि ऐसा न हो तो तब मालूम होता है कि क्या बीतता है । एक अवयव में से बिजली चली जाए, प्राण सिकुड़ जाए, तब पता चलता है कि क्या होता है ? यह लकवा क्या है ? प्राणशक्ति सिकुड़ गई, प्राणशक्ति चली गई तो लकवा हो गया । बिजली चली गई, बस ! लकवा हो गया, पूरे शरीर पर हो जाता है, सारा नियन्त्रण खो बैठता है । व्यक्ति बिना मतलब रो देता है, बिना मतलब हंसता है, शरीर काम नहीं करता । इस प्रकार से मत की भांति व्यक्ति बन जाता है । इतना ही नहीं, यह तो केवल बाह्य व्यक्तित्व की चर्चा है । भीतर के व्यक्तित्व की चर्चा करें तो लगता है कि प्राण-शक्ति और विद्युत् एक बहुत बड़ा चमत्कार है । एक व्यक्ति बहुत अच्छा है और एक व्यक्ति बड़ा गसैल है । एक व्यक्ति इतना सहनशील है कि हर बात सहन कर लेता है. । एक गुसैल थोड़ी-सी बात होती है कि आगबबूला हो जाता है | एक व्यक्ति ईमानदार है तो दूसरा बड़ा बेईमान है । यह सारा क्यों होता है ? यह प्राणशक्ति का खेल है । प्राणशक्ति के इतने दाव-पेच हैं कि वह सारा बिजली करती है । हमें सुख का अनुभव भी बिजली से होता है और दुःख का अनुभव भी बिजली से होता है । मनुष्य राजी भी बिजली से होता है और नाराज भी बिजली से होता है । वासना से लिप्त भी बिजली से होता है और वासना से मुक्त भी बिजली से होता है । यदि हमारी भीतर की सारी विद्युत् की गतिविधियों को, प्रवृत्तियों को हम जान लें और उनका ठीक नियोजन करना जान जाए तो बहुत सारी समस्याएं हल हो जाती हैं ।
साधना का अर्थ है—अपनी प्राण विद्युत् को जान लेना और उसका सही उपयोग करना ।
गुस्सा क्यों आता है ? अशांति क्यों रहती है ? वासना क्यों जागती है ? वासना शांत कैसे होती है ? एक आदमी हत्यारा क्यों बनता है ? एक महान् संत क्यों बनता है ? इनका रहस्य है बिजली । हमारे शरीर में कुछ
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