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जीवन क्या है ?
'अज्ञस्य दुःखौघमयं जगत् ज्ञस्यानन्दमयं जगत्' - अज्ञानी के लिए यह संसार दुःखमय है और ज्ञानी के लिए यह संसार सुखमय और आनन्दमय है । एक व्यक्ति घर आया । पत्नी ने कहा- देखो, मेरे पास-पड़ोस की सभी स्त्रियों के पास हार है। मेरे पास नहीं है। मैं जब उनसे मिलती-जुलती हूं, तब वे मेरा मखौल करती हैं और कहती हैं, इतने वर्ष हो गये, तुम्हारे पति ने तुम्हें हार भी लाकर नहीं दिया ? उस समय मैं लज्जा से नत हो जाती हूं । पति ने सुना । हार खरीद सके उतने रुपये उसके पास नहीं थे । परंतु पत्नी की फरमाइश को भी वह नकार नहीं सकता था । बाजार में गया । बीस-पचीस रुपयों में एक कृत्रिम हार ले आया । उसमें जड़ित कांच के टुकड़े चमक रहे थे । पत्नी ने देखा, प्रसन्न हो गयी । हार पहन लिया । पति भी प्रसन्न । एक दिन वह अपनी सहेलियों के साथ तालाब पर स्नान करने गयी । हार खोलकर रखा तालाब में सखियों के साथ आमोद-प्रमोद करने लगी । कोई आया और चमकते हार को ले गया । स्नान से निवृत होकर वह बाहर आयी, कपड़े पहने । देखा, हार नहीं है । रोने- चीखने लगी । कितने वर्षों बाद हार मिला और वह भी नहीं टिका । रोती- रोती घर आयी । रोटी भी नहीं बना पायी । रोती रही । पति घर आया । पत्नी ने हार चोरी चले जाने की बात कही । पति शांत मन से सुनता रहा । पति को कोई दुःख नहीं हुआ । पत्नी रो रही है कि मेरे दस-बीस हजार रुपयों का हार चोरी चला गया। पति जानता है कि वह हार बीस-पचीस रुपयों का था, गया तो गया, कोई खास बात नहीं है ।
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घटना एक है पर प्रतिक्रियाएं दो हैं । एक में अत्यन्त पीड़ा और दूसरे में उपेक्षाभाव है । जो हार को नकली जानता था उसे दुःख नहीं था और जो हार को वास्तविक जानती थी उसे अपार दुःख था । हम इसके हार्द को समझने का प्रयत्न करें। प्रत्येक घटना के साथ दो प्रकार की प्रतिक्रियाएं होती | सामान्यतः अपने प्रिय के बिछुड जाने पर या मर जाने पर, प्रिय वस्तु गुम हो जाने पर आदमी दुःखी बन जाता है । यह दुःख अज्ञान के कारण होता है । जो ज्ञानी होता है, जिसने अनित्य अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया है जो हृदय से जान चुका है कि योग के साथ वियोग अवश्यंभावी है, संयोग 'वियोग से जुड़ा हुआ है, वह कभी दुःखी नहीं होगा । उसे वियोग में दुःख
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