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१३४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता घर नहीं बनाया । आज भी वह वृक्षवासी है ! मनुष्य ने घर बनाया । घर बनाने में उसने बहुत विकास किया। इसका कारण बताया गया है कि मनुष्य अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखता है। रीढ़ की हड्डी को सीधा रखने के कारण ही मनुष्य के विकास का प्रथम चरण प्रारंभ हुआ | विकास का दूसरा मुख्य तत्त्व है कि मनुष्य की अंगुलियां और अंगूठा विपरीत दिशा में हैं | अंगुलियों की सीध में यदि अंगूठा होता तो आदमी न लिख पाता और न अन्य काम ही कर पाता | मनुष्य पशु जैसा ही होता है । पशुओं के अंगुलियां
और अंगूठा विपरीत दिशा में नहीं होते। यह बहुत बड़ा अंतर है। इसी अंतर के कारण आदमी प्रगति कर रहा है। विकास कर रहा है । यह है द्रव्यानुयोग की दृष्टि से विवेचन ।
दूसरी दृष्टि— योग की दृष्टि से देखें तो मुद्रा के आधार पर विश्लेषण करना होगा । योग ने मुद्रा की दृष्टि से बहुत विकास किया है । दो अंगुलियों को मिलाने से एक प्रकार की मुद्रा बन जाती है । तीन अंगुलियों को मिलाने से तीसरी मुद्रा बन जाती है । अनामिका और अंगूठे को मिलाने से अन्य मुद्रा बन जाती है । इस प्रकार सैंकड़ों-सैंकड़ों मुद्राएं हैं । इन मुद्राओं के परिणाम भी भिन्न-भिन्न होते हैं । मंत्रशास्त्र में मुद्राओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । देवता को आह्वान करना हो तो कौन-सी मुद्रा होनी चाहिए । हठयोग में मुद्राओं का काफी विवेचन है । प्राणायाम करना है, दीर्घश्वास की क्रिया करनी है तो अमुक मुद्रा में करने से फेफड़ों में पूरा प्राणवायु पहुंचेगा, अन्यत्र नहीं । मुद्राओं के आधार पर परिणाम में अन्तर आ जाता है ।
‘एक्यूप्रेजर' और 'एक्यूपंक्चर'- ये दो प्राचीन चिकित्सा पद्धतियां हैं | शरीर के अमुक भाग को दबाने से या शरीर के अमुक केन्द्र पर सुई चुभाने से अमुक बीमारी शांत हो जाती है । श्वास की बीमारी है या हार्ट की बीमारी है तो अमुक पोइन्ट को दबाने या उस पर सुई चुभाने से वह बीमारी शांत हो जाती है | आज भी यह पद्धति चीन और जापान में चलती है | भारत में भी यत्र-तत्र इसके विशेषज्ञ मिलते हैं । आयुर्वेद का एक प्रसिद्ध श्लोक है
दन्तानामञ्जनं श्रेष्ठ, कर्णानां दन्तधावनम् । शिरोभ्यश्च पादानां पादाभ्यश्च चक्षषेः ।।
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