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चेतना रूपांतरण | ६५ एक स्टेज था । प्राचीन चिकित्सा पद्धति की पंचकर्म प्रक्रिया में वमन, विरेचन
और स्वेदन का महत्त्वपूर्ण स्थान था । अधिक संचित हो जाता तो वमन कराते । क्योंकि कफ का शोधन वमन के द्वारा होता है । पित्त का संचय बढ़ जाने पर विरेचन कराया जाता था । इतने पर भी यदि सूक्ष्म दोष रह जाते तो स्वेदन के द्वारा उन्हें बाहर निकाला जाता था । स्वेदन पसीना निकालने की प्रक्रिया है । पसीने के माध्यम से अनेक रोग शान्त हो जाते हैं ।
भावों के परिर्वतन में भी हमें इस चिकित्सा पद्धति का अनुकरण करना होगा | जब तक अतीत का प्रतिक्रमण अर्थात् जमे हुए दोषों का प्रतिहनन या शोधन नहीं होगा तब तक आगे का मार्ग प्रशस्त नहीं होगा । यदि हम आगे बढ़ना भी चाहेंगे तो जमे हुए पुराने दोष पग-पग पर बाधा उपस्थित करेंगे।
तो पहली बात है अतीत का शोधन या प्रतिक्रमण । दूसरी बात है वर्तमान का संयम । अतीत का शोधन करना है तो वर्तमान का संयम भी करना होगा । अतीत का शोधन किया, किन्तु वर्तमान का संयम नहीं है, तो इधर से शोधन किया और उधर से फिर गंदगी से भर दिया । कमरे की सफाई की और दरवाजा खुला ही छोड़ दिया तो आंधी आने पर या हवा के साथ फिर वह कमरा धूल से भर जाएगा । वर्तमान का संयम बहुत आवश्यक होता है । दरवाजा बंद करना बहुत जरूरी होता है । राजस्थानी में एक कहावत है- 'आंधी पीसे कुत्ता खावे' । एक अंधी बुढ़िया आटा पीसने बैठी । रात भर वह घट्टी चलाती रही । कुत्ते उस आटे को चट करते रहे । रात भर पीसा पर बचा कुछ भी नहीं । यदि हम अतीत का शोधन कर लेते हैं, पर वर्तमान का संयम नहीं करते हैं तो शोधन व्यर्थ हो जाता है | आदभी पुरानी बीमारी के मिटाने के लिए पेट का शोधन कर लेता है। पर बाद में यदि वह पथ्य का ध्यान नहीं रखता है तो उसका शोधन बेकार हो जाता है | पथ्य नहीं है तो दवा व्यर्थ है । एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-- यदि पथ्यं किमौषधेन ! यद्य पथ्यं किमौषधेन ! यदि पथ्य है तो औषधि का प्रयोजन ही क्या है और यदि अपथ्य है तो औषधि का प्रयोजन ही क्या है ! जो आदमी पथ्य से रहता है तो उसे कभी ओषधि लेनी नहीं पड़ती और आदमी गदि कपथ्य से रहता है तो कोई भी ओषधि उसके लिए लाभप्रद नहीं हाती ।
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