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१४२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
तीसरी बात है आज व्यक्ति जितना भयभीत रहता है उतना पहले नहीं था । बहुत डरा हुआ है आज का आदमी । डर के इतने निमित्त हैं कि सोतेजागते भय ही बना रहता है । पहले घर की रक्षा का प्रश्न इतना जटिल नहीं था । केवल कमाने का प्रश्न जटिल था । कमाने के बाद उसकी रक्षा का प्रश्न इतना उलझा हुआ नहीं था । किन्तु आज वह जटिलतम हो गया है । उस जटिलता का दोषी वह स्वयं है । दूसरा कोई नहीं है । क्योंकि सामाजिक विकास के बाद यह धारणा स्पष्ट हुई कि धन समाज की संपत्ति है, वैयक्तिक संपत्ति नहीं है । उस पर व्यक्ति का स्वामित्व इतना नहीं हो जाना चाहिए कि वह अकेला उसका भारी संग्रह कर उसको भोगता रहे । इस धारणा के पश्चात् प्रत्येक राज्य सरकार ने आर्थिक नीतियों में परिवर्तन किया है, फिर चाहे वह समाजवादी राज्य सरकार हो या पूंजीवादी राज्य सरकार हो । प्रत्येक राज्य प्रणाली इस बात को स्वीकार करती है कि किसी एक व्यक्ति के पास अधिक पूंजी का संग्रह न हो | इसलिए टैक्सों की वृद्धि हुई । और वह निरन्तर गतिशील है । परन्तु मनुष्य की मनोवृत्ति बदली नहीं । ज्यादा से ज्यादा संग्रह कर रखना चाहता है । उस संग्रह की रक्षा के लिए वह उपाय सोचता है | उन उपायों के चुनाव में वह उचित-अनुचित का विवेक नहीं रख पाता । यहां से भय की वृत्ति प्रारम्भ होती है | भय छिपाव सिखाता है । छिपाव से भय बढ़ता है । भय और छिपाव दो नहीं, एक ही हैं । ये दोनों साथ-साथ चलते हैं।
भय का संकट बहुत बड़ा होता है । सोते-जागते भय बना रहता है कि कहीं पता न चल जाए । कहीं पकड़-धकड़ न हो जाए । भय ने मनुष्य को आक्रान्त कर रखा है । भय अनेक बीमारियों का कारण है । आज की मानसिक विकृतियों का कारण है भय । ऐसी विषम परिस्थिति में क्या ध्यान एवं योग की बात बतानी होगी ? आज का युग योग एवं ध्याम के लिए स्वर्णयुग है । बुरा युग भी कभी अच्छाई के लिए स्वर्ण युग बन जाता है ।
यदि मनुष्य सीधा-सादा हो, सरल जीवन जीने वाला हो, आदिवासी जैसा अविकसित हो, जीवन में माया-कपट न हो, छिपाव न हो, लूट-खसोट न हो, पदार्थ का विकास और पदार्थ की उपलब्धि कम हो तो मन इतना चंचल नहीं बनता कि वह अशांति पैदा करे | मन उस बिन्दु पर नहीं पहुंचता जहां पहुंचने पर आदमी पागल बन जाता है । मन की चंचलता कम रहती
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