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वर्तमान युग में योंग की आवश्यकता । १४३ है। ऐसी स्थिति में ध्यान और योग की बात आदमी को नहीं सूझती या उस ओर कम ध्यान जाता है । उसकी आवश्यकता भी महसूस नहीं होती । आवश्यकता तब महसूस होती है जब चंचलता उस बिन्दु पर पहुंच जाती हे जहां पहुंचने पर मनुष्य सोचता है कि इसकी चिकित्सा होनी चाहिए । आज चंचलता और विक्षोभ स्वयं चिकित्सा की मांग कर रहे हैं । वे चिकित्सा की प्रतीक्षा में हैं । इतनी चंचलता, इतना विक्षेप और विक्षोभ बढ़ गया है कि उनका निदान होना आवश्यक है । आज ध्यान योग का जो प्रबल स्वर सुनाई दे रहा है, वह आध्यात्मिक चेतना का प्रतिफलन नहीं है किन्तु चंचलता की उच्च बिन्दु की मांग है । चंचलता द्वारा पैदा की गई परिस्थिति की मांग है, वातावरण की मांग है। - बुराई से भी अच्छाई निकलती है | चंचलता एक बुराई है । इस बुराई ने अच्छाई को उजागर किया है । इसने ध्यान और योग की उपयोगिता को महसूस कराया है।
भारत ने ध्यान को बहुत भुला दिया । इतना भुला दिया कि ध्यान भी आज राजाओं की भांति इतिहास की वस्तु बन गया । जैसे राजा-महाराजा आज परियों की कथाओं की भांति इतिहास की बातें बनकर रह गये हैं, वैसे ही ध्यान को भी लोगों ने वैसा बना डाला । एक युग में जैन परम्परा ने ध्यान पर बहुत बल दिया था, किन्तु हम स्वयं अनुभव करते हैं कि इन शताब्दियों में जैनों में भी ध्यान एक इतिहास की बात बन गया । दूसरी-दूसरी परम्पराओं में भी ऐसा ही हुआ है । बौद्ध परम्परा और वैदिक परम्परा में भी लगभग ऐसा ही हुआ है । यदि विकसित और संपत्तिशाली देशों में पदार्थ की प्रचुरता
और उपभोग सामग्री की सुलभता नहीं होती और इसमें रचे-पचे लोग मानसिक अशांति से ग्रस्त नहीं होते तो संभवतः ध्यान की बात आज भी हमारे सामने नहीं आती | पदार्थ की प्रचुरता और भोग की अतिरिक्तता ने एक और रिक्तता पैदा कर दी है कि पदार्थों की प्रचुरता को भोग लेने पर भी मन भरा नहीं, बेचैनी हो गई । मन की तृप्ति नहीं हुई, अतृप्ति और बढ़ गई । मन प्यासा का प्यासा रह गया । इस स्थिति में नया रास्ता खोजना पड़ा और उस खोज में से ध्यान और योग का विकास हुआ ।
मैं मानता हूं, सत्य की खोज हमेशा असत्य के विकास में से होती है ।
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