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________________ वर्तमान युग में योग की आवश्यकता / १४१ खसोट, बलात्कार आदि की घटनाओं को पढ़कर अनेक संवेदनों से भर जाता है । समाचारपत्रों में इन समाचारों की बहुलता रहती है । चंचल बनाने वाले साधन - बहुल इस युग में यदि योग का उपयोग न हो, योग की अपेक्षा न हो और मन को स्थिर करने की आवश्यकता न हो तो अतीत के किसी भी युग में ऐसी अपेक्षा नहीं मानी जा सकती । आज मन का स्थिर करने की बहुत बड़ी अपेक्षा है, आवश्यकता है । आदमी मन को स्थिर करना सीखे और इसलिए सीखे कि चारों ओर से चंचलता का प्रवाह उसमें प्रविष्ट हो रहा है, आ रहा है। उसे भर रहा है और उसकी चंचलता को बढ़ा रहा है । वर्तमान युग की एक और परिस्थिति है और वह है व्यस्तता । प्रत्येक मनुष्य इतना व्यस्त हो गया है कि वह इसी भाषा में बोलता है— समय नहीं है । किसी के पास समय नहीं है। एक पढ़े-लिखे व्यक्ति के पास समय नहीं है तो एक अनपढ़ व्यक्ति के पास भी समय नहीं है। एक अधिकारी के पास समय नहीं है तो एक मजदूर के पास भी समय नहीं है। ऐसा एक भी आदमी नहीं मिलेगा जो यह कहे कि मेरे पास समय है । सभी यही कहते हैं - यह काम तो बहुत अच्छा है, करना भी चाहता हूं, पर विवश हूं, समय नहीं है । प्रत्येक आदमी की व्यस्तता बढ़ गई। वर्तमान की समाज व्यवस्था ने भी कुछ व्यस्तता लाद दी । आदमी के सामने आर्थिक कठिनाइयां भी हैं, शासनतन्त्र की समस्याएं भी हैं। ये सब आदमी को और अधिक व्यस्त बना रही हैं । | पुराने जमाने में एक व्यापारी बहुत साधारण ढंग से व्यापार चलाता था । वह छह महीनों तक अपने गांव में और छह महीनों तक परदेश में रह जाता था । वह व्यापार करता और अपनी आजीविका अच्छे ढंग से चला लेता था । किन्तु आज ऐसा नहीं हो सकता। आज राज्यतन्त्र के इतने प्रतिबन्ध और कानून हैं कि एक आदमी उनको संभालने के लिए चाहिए। आज जीवन की इतनी जटिलताएं बढ़ गई हैं कि उन्हें असीम कहा जा सकता है। जहां इतनी व्यस्तता हो, जीवन इतना दूभर हो, वहां बेचारे मन की क्या स्थिति होती है । मन को विक्षुब्ध करने वाली सामग्री की प्रचुरता ने उसे खंड-खंड कर डाला है । उस विक्षोभ से तरंग पैदा होती हैं और उनकी उत्पत्ति के सारे साधन वहीं विद्यामान रहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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