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१४० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता अनेक लोग इनसे जुड़ जाते हैं । जो जीतता है, उसकी जीत पर पार्टी वालों को प्रसन्नता होती है और विरोधी विचार वालों को खिन्नता होती है | एक सुख की अनुभूति करता है और दूसरा दुःख की अनुभूति करता है । कोई हारता है तो उससे जुड़े हुए लोग दुःख का अनुभव करते हैं और विरोधी लोगों को सुख का अनुभव होता है ।
आदमी जुड़ा हुआ रहता है । वह प्रतिबद्ध रहता है । वह जिन्हें जानता तक नहीं, उनसे भी जुड़ा हुआ रहता है। कभी प्रत्यक्षतः मिलना नहीं हुआ, सुख-दुःख में कभी भागीदार नहीं बने, फिर भी वह उस अमुक व्यक्ति के सुख-दुःख में जुड़ा रहता है । स्वयं सुखी भी बनता है और दुःखी भी बनता
हमने देखा है, जब द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। कुछ लोग हिटलर का पक्ष लेते थे और कुछ लोग ब्रिटेन और अमेरिका का पक्ष लेते थे। वहां रणांगण में जो हार-जीत होती वह होती, पर यहां के लोग अनेक विवादों में उलझ जाते । लड़ पड़ते, मारपीट हो जाती । ऐसा लगता मानो युद्ध वहां नहीं, यहां लड़ा जा रहा है।
मनुष्य का स्वभाव है जुड़ जाना, संबद्ध हो जाना, प्रतिबद्ध हो जाना । जब इस स्वभाव को द्रुतगामी संचार-साधनों का सहारा मिल जाता है तो कठिनाई का पार नहीं रहता । बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है | यह आज की प्रबल समस्या है ।
मन स्वभावतः चंचल होता ही है वृत्तियों के कारण और जब उसे चंचल बनाने के अनेक साधन मिल जाते हैं तब उसकी चंचलता वृद्धिगत हो जाती है । आज मन को चंचल बनाने के जितने साधन सुलभ हैं, उतने सुलभ अतीत में नहीं थे। साधन ही बहुत कम थे । पदार्थ विकास के साथ-साथ भौतिक साधन बढ़ रहे हैं और वे सब चंचलता को बढ़ाने वाले हैं । रेडियो, टेलीविजन आदि उपकरण जानकारी के अच्छे साधन माने जाते हैं । किन्तु वे चंचलता को बढ़ावा देने वाले भी हैं । सिनेमा अच्छा साधन माना जाता है पर वह मन को चंचल बनाने का अनुत्तर उपाय है । और भी जितने दृश्य और श्रव्य आदि साधन हैं, वे सब चंचलता के वर्द्धक हैं । जो भी व्यक्ति इन साधनों को काम में लेता है, जो समाचारपत्रों को पढ़ता है, वह हत्या, मारकाट, लूट
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