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२१४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता एक व्यक्ति का स्वर कभी-कभी समूचे जगत् को प्रकम्पित कर सकता है, समूचे संसार को बदल सकता है और नया मोड़ दे सकता है । हम निराश न हों । हम चिन्तन के मोड़ को बदलें, चिन्तन करना सीखें । बहुत जरूरी है चिन्तन करना सीखना । हम ठीक ढंग से सोचना नहीं जानते, चिन्तन करना नहीं जानते । जब हम व्यक्ति की समस्याओं पर चिन्तन करें तो साथ-साथ जागतिक समस्याओं पर भी चिन्तन करें और व्यक्ति की समस्याओं पर चिन्तन जागतिक समस्याओं के संदर्भ में ही करें । क्या आप सोचते हैं कि जगत् की समस्याएं तो एक ओर रहें, और हम व्यक्ति की समस्याओं का समाधान दे सकेंगे? कभी संभव नहीं लगता ।।
कानपुर की घटना है । एक व्यक्ति आचार्यश्री के पास आकर बोलामेरे मन में एक सपना है कि गीता जैसा महान् ग्रंथ सुरक्षित रहे । आज बड़ा खतरा पैदा हो गया है । न जाने कब युद्ध छिड़ जाए और सारी दुनिया समाप्त हो जाए | गीता भी समाप्त न हो जाए। मैं चाहता हूं एक ऐसा भूगृह बनाऊं
और ऐसी सुरक्षित पेटिका बनाकर उसमें गीता को रख दूं जिससे कि संसार समाप्त हो तो भी गीता बच जाए | बड़ा प्रश्न है, बड़ी कल्पना है । आचार्यश्री ने पूछ लिया—गीता तो बच जाएगी पर उसे पढ़ने वाला कोई बचेगा या नहीं बचेगा ? प्रश्न है—पढ़ने वाले का । पढ़ने वाला कोई नहीं रहा तो ग्रन्थ का कोई उपयोग नहीं रहा ।
हमारा चिन्तन यह हो कि आज क्या बचना चाहिए? चैतन्य हमारा बचना चाहिए । हमारा चैतन्य बचता है तो सारी बातें बच जाती हैं । चैतन्य समाप्त हो जाए, तो फिर सब कुछ बच जाए | कुछ भी नहीं होगा । आज के वैज्ञानिकों को भी यह सूझा है । उन्होंने ऐसे अस्त्रों का आविष्कार शुरू किया है नाइट्रोजन बम जैसे, जिससे कि मनुष्य मर जाएगा पर मकान वैसे के वैसे खड़े रहेंगे । भूमि वैसी की वैसी रहेगी । पदार्थ वैसे के वैसे रहेंगे । न सोना-चांदी नष्ट होगा न और कुछ, केवल आदमी मर आएगा, क्योंकि शत्रुता सारी मनुष्य के साथ है, पदार्थ के साथ नहीं है । मुझे लगता है, पदार्थवादी दृष्टिकोण का इससे बड़ा कोई उपक्रम नहीं हो सकता । जहां पदार्थवादी दृष्टिकोण होगा वहां पदार्थ को बचाने की प्राथमिकता दी जाएगी, चैतन्य को बचाने की प्राथमिकता नहीं मिलेगी । आज चैतन्य को प्राथमिकता
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