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वर्तमान युग में योग की आवश्यकता
हम जिस जगत् में जीते हैं वह सापेक्षता का जगत् है । किसी भी वस्तु को संदर्भ में भी देखा जा सकता है और सीधा भी देखा जा सकता है। संदर्भ में देखना उचित होता है । संदर्भ को छोड़ देने पर कुछ भी समझ में नहीं आ सकता, फिर चाहे वह योग हो या अयोग हो, ध्यान हो या चंचलता हो । प्रत्येक चस्तु की व्याख्या संदर्भ से की जा सकती है। योग को भी संदर्भ में ही समझा जा सकता है । हमारे सामने वर्तमान युग का संदर्भ है। मैं मानता हूं, शाश्वत सत्य को देश-काल में विभक्त नहीं करना चाहिए | योग मन की साधना है । यह मन की समस्याओं को सुलझाने का विधिमार्ग है । शाश्वत मार्ग है। समस्याएं शाश्वत हैं तो उनके समाधान और समाधान की प्रक्रियाएं भी शाश्वत हैं । जो शाश्वत हैं, उन्हें देश-काल के संदर्भ में क्यों देखें ! देशकाल के संदर्भ में सामयिक सत्य को ही देखा जाना चाहिए | किन्तु दुनिया का ऐसा ही स्वभाव है कि यहां शाश्वत भी सामयिक रूप में प्रस्तुत होता है । उसकी निरंतरता भी शाश्वत बन जाती है । इसलिए उस शाश्वत सचाई को भी देश-काल के संदर्भ में देखना अनुचित बात नहीं है ।
आज योग और ध्यान का बहुत मूल्य आंका जा रहा है । प्रत्येक देश में इसका मूल्यांकन हो रहा है । निश्चित ही इसके पीछे कोई हेतु है और वही हेतु हमारी समझ के लिए एक संदर्भ बन जाता है । हेतु बहुत स्पष्ट है कि वर्तमान युग बहुत संक्रामक बन गया है। पुराने जमाने में रात के समय में एक हाथ को दूसरे हाथ का मुश्किल से पता चलता था । घोर अंधकार छाया रहता था । 'सूचीभेद्य' और 'मुष्टिभेद्य' शब्द इसी के द्योतक हैं । उस समय संक्रमणं बहुत कम था। आज प्रकाश की सुलभता है । इतना प्रकाश
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