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तत्त्वज्ञान या जीवन दर्शन ? / १३७
'अरे, दोनों ने मौन भंग कर दिया ।' इतने में चौथा बोल पड़ा— 'एक मैं बचा हूं, मैंने मौन नहीं तोड़ा । '
बहुत कठिन होता है वाणी का संयम । इसी प्रकार हाथ-पैर का संयम भी बहुत कठिन होता है। एक मुहूर्त्त के ध्यानकाल में स्थिर कहां रह पाते हैं हाथ-पैर ? कितनी बार बदलना पड़ता है ?
ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का संयम बहुत कठिन होता है । अभ्यास के द्वारा उन पर संयम किया जा सकता है, संयम सध सकता है ।
जब चारों दृष्टियों से तत्त्व की मीमांसा हो जाती है तब यह प्रश्न शेष नहीं रहता कि तत्त्वज्ञान केवल तत्त्वज्ञान ही रहता है या वह जीवन-दर्शन भी बन जाता है ? वास्तव में दोनों घुले-मिले हुए हैं, जैसे दूध और घी ।
जब चारों अनुयोगों के माध्यम से तत्त्व को जान लेंगे तो ज्ञान का विकास होगा, दर्शन और चारित्र का विकास होगा और अभिव्यक्ति का विकास होगा ।
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