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________________ १३६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता संयम । यह आचारशास्त्र का बहुत बड़ा अंग है। यह तो नहीं कहा कि पूरे शरीर का संयम करो । हाथ-पैर के संयम की बात कही, इसका हमें आचारशास्त्रीय दृष्टि से भी महत्त्व आंकना चाहिए । आचारशास्त्रीय दृष्टि से संयम तब होता है, जब हम हाथ-पैर को स्थिर रख सकें, लंबे समय तक रख सकें | जो व्यक्ति उकड़ आसन में बैठता है, वह पैरों का संयम साधता है | उसकी आध्यात्मिक शक्तियां जागती हैं । उसमें ब्रह्मचर्य की शक्ति का विकास होता है । यह है आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण | तीसरा है गणितशास्त्रीय दृष्टिकोण । हाथ और पैर का गणित करना होगा । दोनों हाथों की दस अंगुलियां, दोनों पैरों की दस अंगुलियां । उन पर बनी रेखाओं का गणित, हाथ और पैरों की रेखाओं का गणित और मूल्यांकन | पुराने जमाने में तर्कशास्त्र पढ़ा जाता था सूत्रों के आधार पर और आज पढ़ा जाता है गणित के आधार पर । यह सही विज्ञान है । आचारशास्त्र भी गणित के आधार पर पढ़ाए जाते हैं । विनोबा कहा करते थे कि जैन दर्शन को 'अंक दर्शन' (गणित दर्शन) कहना चाहिए। जैन साहित्य का लगभग आधा भाग गणित से भरा पड़ा है। जैन आचार्यों ने गणित का बहुत उपयोग किया । गणितशास्त्र की दृष्टि से भी तत्त्व का विश्लेषण होना चाहिए । चौथा है कथाशास्त्रीय दृष्टिकोण | हाथ-पैर के संयम की बात को कथा के माध्यम से बताना कि कब किसने कैसे संयम किया था और उसको क्याक्या लाभ हुए थे । इसका भी अपना मूल्य है और यह विद्या तत्त्व को हृदयंगमं कराने में बहुत कारगर सिद्ध हुई है । ध्यान उदाहरण के द्वारा वाणी के संयम को स्पष्ट करते हुए कहा गयाएक गुरु के पास चार शिष्य आए और बोले— 'गुरुदेव ! हम ध्यान की साधना करना चाहते हैं ।' गुरु ने देखा । आकृति से जान लिया कि उनका मन बहुत चंचल है । बहुत आग्रह करने पर गुरु ने कहा- 'देखो, की साधना से पूर्व दो घंटा मौन रहो, इस कमरे में बैठ जाओ ।' चारों कमरे में बैठ गए । सायंकाल का समय था । धीरे-धीरे अंधेरा होने लगा । एक बोला- 'अरे, यह कैसा गुरुकुलवास ! अंधेरा हो रहा है, कोई दीया ही नहीं जला रहा है ।' तत्काल दूसरा बोल उठा- 'चुप, मौन रहो ।' तीसरा बोला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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