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चैतन्य-जागरण का अभियान | २३१
देता है—पुण्य चाहिए, पुण्य चाहिए, पुण्य चाहिए । किन्तु आचार्य भिक्षु का स्वर है—पुण्य की इच्छा करना पाप है । उनकी भाषा है—'जिण पुण्य तणी वंछा करी, ते वंछ्या कामभोग ।' जिस व्यक्ति ने पुण्य की इच्छा की, उसने कामभोग की इच्छा की, यह विचित्र-सा कथन लगता है कि पुण्य की इच्छा कामभोग की इच्छा है । पुण्य की इच्छा पाप की इच्छा है ! कैसे है—यह प्रश्न होता है ।
प्रत्येक व्यक्ति जीवित रहना चाहता है, कोई मरना नहीं चाहता । हमारा चिन्तन यह है कि जो जीना चाहता है, वह मरना चाहता है । ऐसा कौन व्यक्ति है जो जीना चाहता हो, मरना न चाहता हो ! जीना चाहने वाला निश्चित ही मरना चाहता है । पुण्य की इच्छा करने वाला निश्चित ही पाप की इच्छा कर रहा है । इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता । जीवन और मरण को बांटा नहीं जा सकता । पुण्य और पाप को पृथक् नहीं किया जा सकता | ये युगल हैं । इनको अलग-अलग देखा जा सकता है, किन्तु अलग किया नहीं जा सकता | अलग देखना एक बात है किन्तु अलग करना सर्वथा दूसरी बात है । अलग रूप में आप देख रहे हैं कि यह पुण्य है और यह पाप है । किन्तु अलग किया नहीं जा सकता । जीवन और मरण को अलग देखा जा सकता है, किन्तु विभक्त नहीं किया जा सकता ।
आचार्य भिक्षु ने बिलकुल ठीक लिखा है कि जो व्यक्ति पुण्य की इच्छा. कर रहा है, वह पाप की इच्छा कर रहा है । वह कामभोग की इच्छा कर रहा है । और जो कामभोग की इच्छा कर रहा है वह संसार-चक्र की—जन्म, मरण, शोक, हर्ष, पूरे चक्र की इच्छा कर रहा है ।। __आचार्य भिक्षु ने चैतन्य-जागरण का बहुत बड़ा सूत्र दिया- 'तुम पुण्य की इच्छा मत करो । केवल चैतन्य-जागरण की इच्छा करो ।' शायद पूरे धार्मिक
और अध्यात्म के इतिहास में इस सूत्र की घोषणा विरल व्यक्तियों ने की है। उनमें एक प्रमुख प्रवक्ता हैं आचार्य भिक्षु ।
चैतन्य सुषुप्त होता है और चैतन्य जागता है । एक सोया हुआ बच्चा और एक जागा हुआ बच्चा । एक सोया हुआ चैतन्य और एक जागा हुआ चैतन्य । हमारी दो अवस्थाएं हैं । जब अहंकार और ममकार प्रबल होते हैं, चैतन्य सो जाता है । जब अहंकार और ममकार कम होते हैं, चैतन्य जाग
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