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________________ मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता / १६५ प्रमाद में रहता है, वह इस सिद्धान्त को कैसे समझ पाता है ? उसने तो आत्मा को गौण ही कर डाला । उसकी आत्मा पर तो भूत-प्रेत सवार हो गया । समूचा धर्म-प्रवचन अप्रमाद, जागरण के लिए हुआ है | अप्रमाद का अर्थ है--प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास, उपादान का विकास या सुरक्षाकवच का निर्माण । मंत्र साधना में सुरक्षा कवच के निर्माण का बहुत बड़ा महत्त्व है | जो सुरक्षा कवच का निर्माण कर मंत्र-साधना करता है, उसके मार्ग में कोई उपद्रव नहीं आता, कोई विघ्न नहीं आता । यदि हमें अपने कर्तृत्त्व को विकसित करना है और 'मैं अपने भाग्य का विधाता हूं'—इस तथ्य को हृदयंगम करना है तो निरंतर अप्रमाद की साधना करनी होगी । जो अप्रमत्त नहीं है, दूसरे के प्रभावों से घिरा हुआ है, उसके लिए 'मैं ही अपने भाग्य का विधाता हूं'--यह सूत्र कार्यकर नहीं होता । उसके लिए सूत्र होगा— 'दूसरे ही तेरे भाग्य के विधाता हैं ।' जो व्यक्ति प्रारंभ से ही अप्रमत्त रहता है, जागरूक होता है, वह अपने भाग्य का विधाता बन जाता है और जो प्रारंभ से प्रमादी होता है, जागरूक नहीं होता, जीवन भर उसका भाग्य-विधाता दूसरा बना रहता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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