________________
१४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
‘भंते ! क्या केवल दर्शन से जीव दुःख-मुक्त हो सकता है ?' 'गौतम ! नहीं ।' 'भंते ! क्या कोरे चारित्र से जीव दुःख-मुक्त हो सकता है ?' 'गौतम ! नहीं ।' 'भंते ! दुःख-मुक्ति कैसे हो सकती है ?'
'गौतम ! दुःख-मुक्ति के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों का समन्वित योग होना चाहिए ।'
ज्ञान, दर्शन और चारित्र का योग—यह जीवन का पूरा उद्देश्य बनता है । आज यह योग नहीं रहा, वियोग हो गया। तीनों का समानरूप से विकास होने पर ही वे कार्यकर होते हैं | जब शरीर के सारे अवयव प्रमाणोपेत होते हैं, साथ-साथ बढ़ते हैं तो शरीर सुन्दर बनता है । एक अवयव अधिक बढ़ जाता है और एक अवयव छोटा रह जाता है तो शरीर कुरूप हो जाता है। उसका सौन्दर्य नष्ट हो जाता है । आज उद्देश्य की विस्मृत्ति के कारण भद्दापन
आ गया है । दृष्टिकोण गलत है और आचरण भी गलत है । दोनों गलत हैं । दृष्टिकोण में भद्दापन है और आचरण में भी भद्दापन है । बौद्धिकता का एकांगी विकास उद्देश्य पूर्ति में सक्षम नहीं हो सकता।
जीवन में दो बातें होती हैं । एक है मूर्खता और दूसरी है मूढ़ता । प्रत्येक आदमी में ये दोनों हैं | जन्म लेने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो मूर्ख न हो, मूढ़ न हो । विद्यालयों का काम है मूर्खता को मिटा देना, व्यक्ति को समझदार बना देना । उसकी बुद्धि को बढ़ा देना । मूढ़ता को मिटाना विद्यालय का काम नहीं है । यह काम है अध्यात्म और दर्शन का । यह काम है प्रेक्षाध्यान का, साधना का । इनके द्वारा मूढ़ता को समाप्त किया जा सकता है और मूर्छा के परमाणुओं को व्यर्थ किया जा सकता है । इनसे समता के परमाणुओं की सघनता बढ़ती है ।
समस्त मूढ़ता का कारण है विषमता । आदमी जितना मूढ़ होगा, उतना ही विषमता के प्रति आस्थावान होगा । आदमी मूढ़ता से जितना दूर होगा, उतनी ही समता के समीप होगा । ज्ञान और आचरण के बीच में एक होता है आकर्षण । वह आकर्षण आज समता के प्रति नहीं है पदार्थ के प्रति है | यह आकर्षण भी ज्ञान से फलित हुआ है । बुद्धिमान आदमी जितना अपराधी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org