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जीवन का उद्देश्य | १३ जानता? क्या इस सचाई को एक मनोवैज्ञानिक नहीं जानता? क्या उनमें यह ज्ञान नहीं है ? वे जानने वाले शरीर-चिकित्सक और मनोचिकित्सक स्वयं इन बीमारियों के शिकार हो जाते हैं । वे क्रोध करते हैं, घृणा करते हैं, आत्महत्या कर लेते हैं । क्या यह ज्ञान का, जानने का परिणाम है ? नहीं । उनके ज्ञान और आचरण में दूरी है | ज्ञान सही है, पर रसायनों के द्वारा वे सही आचरण नहीं कर पा रहे हैं । यह विरोधाभास सर्वत्र है।
इस भौतिकवादी वातावरण में जीवन के उद्देश्य की उचित मीमांसा नहीं की गई । उसे सही ढंग से नहीं समझा गया । आज की सरकार चाहती है कि उसके राष्ट्र में कोई निरक्षर न रहे । सब साक्षर हों । साक्षरता और शिक्षा का अभियान पूरे वेग से चल रहा है । परन्तु इतनी शिक्षा हो जाने पर भी, ज्ञान का इतना विकास हो जाने पर भी, आर्थिक साधनों का विकास हो जाने पर भी, मन की समस्याओं को कोई समाधान नहीं मिल पा रहा है | मन की समस्याएं बढ़ी हैं और बढ़ती जा रही है । संभवतः आज से दो-चार वर्ष पहले निरक्षरता के वातावरण में जो पागलपन नहीं था, वह पागलपन आज साक्षरता के वातावरण में है | पुराने जमाने में इतने पागलखाने और मानसिक चिकित्सालय नहीं थे, जितने आज हैं | पागलखानों में भी पागलों की भीड़ लगी हुई है । मानस-शास्त्र ने विकास किया है, पर मानसिक समस्याएं समाहित नहीं हो पा रही हैं । भारत में पागल अधिक हैं । अमेरिका आदि विकसित राष्ट्रों की समस्या और आगे है । वर्तमान में बौद्धिक विकास को ही सब कुछ मान लिया गया है । यही शिक्षा का आधार बना हुआ है । जीवन-विकास और आर्थिक प्रगति का आधार भी यही है । इस स्वीकृति में बेचारे मानव को बिलकुल भुला दिया और मानसिक समस्याओं को इग्नोर कर दिया, उपेक्षित कर दिया ।
जैन दर्शन के संदर्भ में जीवन के उद्देश्य की मीमांसा करते हैं तो वहां केवल ज्ञान ही पर्याप्त नहीं माना जाता । यह सर्वथा अपर्याप्त है । जैन आगमों में एक प्रसंग है । गौतम ने भगवान महावीर से पूछा
भंते ! क्या केवल ज्ञान (कोरे ज्ञान) से जीव दुःख मुक्त हो सकता
है ?'
'गौतम ! नहीं ।'
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