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१२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता होते थे । कितनी बड़ी ज्ञानराशि ! पूर्षों के अध्येता भी भटक जाते हैं, मार्गच्युत हो जाते हैं | इसका कारण स्पष्ट है कि उनके ज्ञान का आवरण हट चुका है, किन्तु मार्गच्युत करने वाला तथ्य-मोह अभी वहां मौजूद है ।
कहा जाता है, ज्ञान जीवन में प्रकाश भरता है । ज्ञान एक दीप है, एक सूर्य है । ज्ञान केवल प्रकाश दे सकता है, क्रिया नहीं दे सकता । प्रकाश देना एक बात है और उसके अनुसार आचरण करना दूसरी बात है । दीया जला दिया । प्रकाश हो गया । पर आंखों में मोतियाबिन्द है तो दीया क्या करेगा । प्रकाश का उपयोग क्या होगा ! आंख है, पर शराब पी ली, मूर्छा आ गई । सूर्य का प्रकाश है, आंखें खुली हैं, पर दीखेगा कुछ नहीं । शराब की मूर्छा इतनी सघन है कि उसे पता ही नहीं चलता कि रात है या दिन | वह पत्नी को मां और मां को पत्नी समझ लेता है। आंख खुली हैं, सर्य का प्रकाश है, वस्तु सामने है, पर वह देख नहीं पाता । उसमें मूर्छा के परमाणु इतने सक्रिय हो गए कि ज्ञान का काम समाप्त हो गया । ज्ञान जीवन को न परिष्कृत करता है और न विकृत । विकृत करने वाला कोई दूसरा तत्त्व
ज्ञान के बाद आता है दर्शन | ज्ञान के आधार पर एक दृष्टिकोण निर्मित होता है । आदमी पहले जानता है, फिर अपनी दृष्टि बनाता है । उसके बाद आचरण और व्यवहार की बात आती है । ज्ञान और आचरण के बीच एक दूरी है श्रद्धा और विश्वास की | जब तक यह दृष्टिकोण (दर्शन) की दूरी समाप्त नहीं होती, तब तक ज्ञान आचरण को प्रभावित नहीं कर सकता । ज्ञान को प्रभावित करता है ज्ञानावरण कर्म, और दृष्टि तथा आचरण को प्रभावित करता है मोहनीय कर्म, मूर्छा के परमाणु ।।
जीवन की सफलता के लिए आवश्यक है ज्ञान, दर्शन और चारित्र की दूरी को मिटाना, उनमें सामंजस्य स्थापित करना ।
जब अंतःस्रावी ग्रन्थियों के स्रावों का संतुलन गड़बड़ा जाता है, तब शारीरिक और मानसिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं । क्रोध, भय, अहंकार
और कामवासना के आवेग शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न करते हैं। क्योंकि इनसे रासायनिक असंतुलन पैदा हो जाता है और उससे शरीर और मन दोनों रुग्ण हो जाते हैं । क्या इस सचाई को आज का डॉक्टर नहीं
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