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जीवन का उद्देश्य / ११ श्रद्धा करते हैं, आकर्षण उत्पन्न करते हैं और आचरण करते हैं । जैसे मस्तिष्क, हृदय और हाथ-पैर हैं, वैसे ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं। ज्ञान हमारा मस्तिष्क है, दर्शन हमारा हृदय है और चरित्र हमारे हाथ-पैर हैं । शारीरिक स्तर पर तीनों का योग है और तीनों समन्वित रूप से कार्य करते हैं। किन्तु मानसिक स्तर पर ज्ञान, दर्शन और चारित्र - इस त्रयी में संगति नहीं है। इसलिए आदमी का जीवन विसंगतियों और विरोधाभासों का जीवन है। आदमी उसी में जी रहा है। उन विसंगतियों और विरोधाभासों को मिटाना, उस त्रयी में सामंजस्य स्थापित करना, यह जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होना चाहिए ।
आज का यह ज्वलंत प्रश्न है कि आदमी की कथनी और करनी में बहुत दूरी है । आदमी का कहना एक प्रकार का है और आचार -प्रचार दूसरे प्रकार का है । यह क्यों ? दूरी होना स्वाभाविक है । जानना ज्ञान का काम है | एक आवरण हटता है और जानने की क्षमता पैदा हो जाती है । जो भीतर में था वह प्रकट हो गया। पर ज्ञान हो जाने पर विसंगति नहीं मिटती, विरोधाभास समाप्त नहीं होता । ऐसे बहुत सारे लोगों को देखा है जो बड़े विद्वान् और पंडित हैं किन्तु आचार और व्यवहार की दृष्टि से शून्य हैं। उनका व्यवहार इतना रूखा और कटु होता है कि दूसरा कोई भी व्यक्ति उनके साथ रहना नहीं चाहता, पास में जाना भी पसन्द नहीं करता । उनमें निम्नतर वृत्तियां पायी जाती हैं । कहां ज्ञान, विद्वत्ता और पांडित्य तथा कहां आचार और व्यवहार | इतना अन्तर क्यों ? ज्ञान का काम अज्ञान का परिष्कार करना नहीं है । ज्ञान का काम व्यवहार का परिष्कार करना नहीं है । जैसे ज्ञान के साथ आचार का संबंध है, वैसे ही आचार-व्यवहार और दृष्टिकोण के साथ मूर्च्छा का संबंध भी है । मूर्च्छा का आवरण जब तक सघन होता है तब तक ज्ञान कितना ही आ जाए, आदमी भटक जाता है । जैन दर्शन में ज्ञान की सार्वभौमता की अस्वीकृति में कहा गया कि पूर्वों का अध्येता, पूर्वो का ज्ञानी भी भटक सकता है । बहुत महत्त्वपूर्ण संकेत है । पूर्वज्ञान वह ज्ञानराशि है जिसको समझाने के लिए एक रूपक दिया गया है। एक विशालकाय हाथी, जिस पर हौदा (अंबारी) है, वह जिस स्याही के ढेर में छिप जाए उस विशाल
स्याही से एक पूर्व भी नहीं लिखा जा सकता। ऐसे चौदह पूर्वों के ज्ञाता भी
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