________________
९४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता में भी आता रहता है । अमावस्या और पूर्णिमा ज्वार-भाटे के दिन हैं । बहुत अन्वेषणों के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि हत्याएं, अपराध, हिंसा, उपद्रव, आत्महत्या- ये सारे पूर्णिमा और अमावस्या के दिन ज्यादा होते हैं । एक्सीडेण्ट भी चन्द्रमा के दिन ज्यादा होते हैं । इस विषय पर काफी लिखा गया है । काफी सर्वे किए गए हैं और खोजें भी की गई हैं । चन्द्रमा के साथ हमारे मन का बहुत गहरा संबंध है।
कालचक्र और सौरमण्डल से हमारा भाव और मन जुड़ा हुआ है। इनसे हम प्रभावित होते हैं । इसलिए इन दिनों में विशेष अनुष्ठानों का विधान किया गया कि अष्टमी, चतुर्दशी को विशेष अनुष्ठान किए जाएं जिससे कि मानसिक विक्षिप्तता के प्रभावों से बचा जा सके । यह एक मुख्य हेतु था | चन्द्रमा की भांति ही दूसरे ग्रहों का भी प्रभाव पड़ता है । सूर्य का भी प्रभाव होता है,मंगल का भी प्रभाव होता है और गुरु का भी प्रभाव होता है । हम इतने प्रभावों से प्रभावित हैं कि अप्रभावित अवस्था हमें प्राप्त नहीं है । इस स्थिति में मानसिक शान्ति की समस्या और जटिल बन जाती है ।
क्या अप्रभावित रहा जा सकता है ? बहुत कठिन बात है । क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक जीवन जीता है। कोई व्यक्ति केवल वैयक्तिक जीवन नहीं जीता । वह सामाजिक जीवन जीता है और समाज का एक हिस्सा बना हुआ है । भाषा, सभ्यता, संस्कृति, विकास सारा समाज के सन्दर्भ में होता है | अकेले में किसी का विकास नहीं होता । वह समाज का हिस्सा बना हुआ है | मनोवैज्ञानिक यह स्थापना करते हैं कि व्यक्ति वैसा बनता है, जैसा समाज का वातावरण होता है । अतः व्यक्ति का निर्माण सामाजिक वातावरण पर निर्भर है । इस स्थिति में मानसिक समस्या का समाधान कैसे खोज सकते हैं ? समाधान तो पूरे समाज के लिए खोजने का है । समाज का वातावरण कैसे बदले ? सामाजिक सन्दर्भ कैसे बदलें । समाज की परिस्थितियां कैसे बदलें । और यह परिवर्तन किसी के हाथ की बात नहीं है । बहुत जटिलता है । दोनों ओर आदमी उलझ जाता है ।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्यक्ति सामाजिक वातावरण को ग्रहण करता है और वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है । किन्तु कोई भी बात यदि एकांगी दृष्टिकोण से स्वीकृत होगी तो उसमें सचाई नहीं होगी। सचाई होगी तो अधूरी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org