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१०२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
है । उससे आगे बुद्धि आती है । हमारे जानने का पहला या मूलस्रोत है— इन्द्रियां । ये हमारे शरीर में हैं, पृथक नहीं हैं। हमने शरीर के कुछ ऐसे चुंबकीय क्षेत्र बना लिये, जिनके माध्यम से हम बाह्य जगत् के साथ संपर्क स्थापित कर सकते हैं । वे पांच माध्यम हमारी पांच इन्द्रियां हैं ।
जो इस स्थूल शरीर से परे है, वह इन्द्रियों का विषय नहीं है । वह इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता । किन्तु हमारे शरीर में कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जिनके विषय में चिन्तन और अनुभव करते-करते हम अपनी बुद्धि और चिद् शक्ति के द्वारा इन्द्रियों की सीमा से परे जाकर सूक्ष्म शरीर की सीमा में प्रविष्ट हो गये । उनमें एक तत्त्व है प्राण विद्युत । अग्निदीपन, पाचन, शरीर का सौष्ठव और लावण्य, ओज- ये जितनी आग्नेय क्रियाएं हैं, ये सारी सप्त धातुमय इस शरीर की क्रियाएं नहीं हैं । फिर प्रश्न हुआ कि इन क्रियाओं का संचालक कौन है ? खोज हुई। ज्ञात हुआ कि इस स्थूल शरीर के भीतर तेज का एक शरीर और है, वह है विद्युत शरीर, तैजस शरीर । वह शरीर सूक्ष्म है । वही इस स्थूल शरीर की सारी क्रियाओं का संचालन करता है । उस सूक्ष्म शरीर में से विद्युत का प्रवाह आ रहा है और उस विद्युत प्रवाह से सब कुछ संचालित हो रहा है । उस सूक्ष्म शरीर को प्राण शरीर भी कहा जाता है । यह शरीर प्राण का विकिरण करता है और उसी प्राण-शक्ति से क्रियाशीलता आती है ।
इन्द्रियां अपना कार्य करती हैं । किन्तु यदि उनमें प्राण-शक्ति का प्रवाह न हो तो वे अपना कार्य नहीं कर सकतीं। मन का अपना काम है । किन्तु प्राण शक्ति के योग के अभाव में वह भी कुछ नहीं कर सकता । स्वर-यंत्र अपना काम करता है, पर प्राण-शक्ति के अभाव में वह निष्क्रिय हो जाता है । हमारा रेस्परेटरी सिस्टम भी प्राण-शक्ति के आधार पर चलता है । श्वासोच्छ्वास की क्रिया प्राणशक्ति के बिना नहीं हो सकती ।
श्वास, मन, इन्द्रियां, भाषा, आहार और विचार — ये सब प्राणशक्ति के ऋणी हैं । उससे ही ये सब संचालित होते हैं, क्रियाशील होते हैं । प्राणशक्ति सूक्ष्म शरीर से निःसृत है। जहां से प्राणशक्ति का प्रवाह आता है वह सूक्ष्म शरीर है-- तैजस शरीर ।
इसी संदर्भ में एक प्रश्न और होता है कि वह तैजस शरीर किसके द्वारा
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