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१९२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
नैतिकता का अर्थ है—दो से संबंध | अध्यात्म अकेले में हो सकता है। नैतिकता दो के बिना नहीं हो सकती । अकेले व्यक्ति का प्रामाणिक होना या न होना, कोई सिद्धान्त नहीं बनता, कोई कसौटी नहीं बनती। जहां दूसरा व्यक्ति आता है वहां नैतिकता-अनैतिकता का स्वर उभरता है । नैतिकता का क्षेत्र है-समाज । आध्यात्मिकता और उपासना का क्षेत्र है—व्यक्ति । यह इनकी भेदरेखा है | धर्म का यह दूसरा आयाम (नैतिकता) समाज से संबंधित है । एक व्यक्ति चोरी करता है, विश्वासघात करता है, ठगता हैयह सब अनैतिकता है | इसे अनैतिकता कहा जाएगा | इसे न अधर्म कहना चाहिए, न अन-आध्यात्मिक कहना चाहिए और न अनुपासना कहना चाहिए | यह है अनैतिकता, जो धर्म का पृथक् रूप है । धर्म ने एक महत्त्वपूर्ण पाठ पढ़ाया कि दूसरों के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए । जहां तक व्यवहार का प्रश्न है, धर्म ने कुछ निश्चित मानदण्ड दिए, सूत्र दिए | धर्म की इस अवस्था का अवबोध देने वाला प्रसिद्ध सूक्त है—'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचेत्'-दूसरों के साथ वैसा व्यवहार मत करो जो स्वयं के लिए प्रतिकूल हो । यह कसौटी है व्यवहार की । क्या आज भ्रष्टाचार करने वाला इस कसौटी को काम में लेता है ? क्या कोई धार्मिक व्यक्ति इस सूक्त को जीता है ? क्या वह कभी सोचता है, जो मेरे लिए प्रतिकूल है, उसका आचरण दूसरों के प्रति क्यों करूं? जब वह बाजार से घी खरीदने जाता है तो मिलावटी घी देखकर झल्ला उठता है । राज्य कर्मचारी को रिश्वत लेते देख, वह अप्रसन्न होता है । पर क्या वह इन्हीं बुराइयों को करते समय दुःख या कष्ट का अनुभव करता है ? क्या वह मिलावट की दवाइयां बेचते समय कष्टानुभूति करता है ? उसे अपनी इन बुराइयों से अर्थ का लाभ होता है और वह इन बुराइयों से प्रसन्न भी होता है कि आज इतना धन बटोर लिया । आज उसको ठगकर लाख रुपये कमा लिये । अब हम सोचें कि लाभ में कौन है । कौन नहीं ठगा जा रहा है ! पूरा समाज इस चक्रवयूह में फंसा हुआ है । अब इस चक्र को अभिमन्यु बनकर कौन तोड़े ! अभिमन्यु चक्रव्यूह में प्रवेश कर तो गया, पर बाहर निकलने में असमर्थ-सा हो रहा है । बड़ी कठिनाई हो गई है। स्थिति यह बन गई है कि एक आदमी दूसरे आदमी को ठगकर खुश होता है और जब स्वयं ठगा जाता है तो नाखुश होता है ।
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