________________
२५६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
साधना के क्षेत्र में यह द्वन्द्व एक विघ्न है | साधना के क्षेत्र में जितना हर्ष का मूल्य है उतना विषाद का मूल्य है । हर्ष का कोई अतिरिक्त मूल्य नहीं है | साधना करने वाले साधक भी प्रवाहपाती होकर मन की अनुकूलता पर अतिरिक्त हर्षित हो जाते हैं और मन की प्रतिकूलता पर विषादग्रस्त हो जाते हैं । अनुकूलता पर हर्षित होना और प्रतिकूलता पर कुम्हला जाना यह द्वन्द्व के घेरे में जीने वालों की स्थिति है । यह साधना की स्थिति नहीं है । यह पदार्थ जगत् में जीने वालों की स्थिति है । जो लोग पदार्थ से हटकर आत्मा का जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें हर्ष और विषाद से दूर हटकर प्रसन्नता का जीवन जीने का अभ्यास करना होगा, चित्त की निर्मलता का जीवन जीने का अभ्यास करना होगा ।
महर्षि पतंजलि के सामने प्रश्न आया कि प्रसन्नता कब प्राप्त होती है ? उन्होंने कहा-- निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसाद:--बहुत मार्मिक बात है। निर्विचार ही विशारदता से अध्यात्म की विशारदता प्राप्त होती है और उससे प्रसाद प्राप्त होता है । प्रसाद यानी गुरु या देव की कृपा । यही है प्रसन्नता । मंदिर में जाते हैं और प्रसाद लेना चाहते हैं | उसके साथ प्रसन्नता जुड़ी हुई होती है । अध्यात्म की विशारदता प्राप्त होती है, तब प्रसन्नता प्राप्त होती है । फिर प्रश्न होता है कि अध्यात्म की विशारदता कब आती है ? वह हर किसी में नहीं आती । साधना के मार्ग पर चलने वाले में भी नहीं आती। उसकी प्राप्ति में कुछ बाधाएं हैं, कुछ आवरण हैं | जब तक ये बाधाएं या आवरण नहीं मिटते, तब तक प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती ।
एक संन्यासी अपने भक्त पर प्रसन्न हुआ | उसने सोचा- यह भक्त मेरी सेवा करता है, इसे कुछ दूं । उसने देने की बात सोची । उसने अपने चिमटे से बंधा एक पत्थर निकाला और उसे भक्त को देते हुए कहा-'यह पारसमणि पत्थर है। इससे लोहा सोना बन जाता है। मैं तुम पर प्रसन्न हूं | इसे ले जाओ । मालामाल हो जाओगे।' भक्त ने सोचा–पत्थर से लोहा सोना कैसे हो सकता है ? उसका मन संदिग्ध हो गया । संन्यासी समझ गया । उसने लोहे की एक सूई ली, पारसमणि पत्थर से उसको छुआ और वह सोने की हो गई | भक्त का संदेह नहीं मिटा । उसने संन्यासी से कहा- 'आप मुझे धोखा दे रहे हैं ।' संन्यासी ने कहा.— 'धोखा कैसे ? तुम्हारे सामने ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org