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साधन-शुद्धि का सिद्धान्त / २३७ ही मंजिल तक पहुंचाता है, सिद्धि तक पहुंचाता है । जहां साध्य शुद्ध होता है और साधन भी शद्ध होता है तब सिद्धि तक पहुंचा जा सकता है। दोनों की शुद्धि अपेक्षित है।
साध्य-साधन के विषय में भारतीय साहित्य में काफी चिन्तन प्राप्त होता है । किन्तु आचार्य भिक्षु ने जितनी प्रखरता से इस प्रश्न को उभारा, उतनी प्रखरता अन्यत्र प्राप्त नहीं होती । मैं यह नहीं कहना चाहता कि आचार्य भिक्षु ने ही इस प्रश्न को उपस्थित किया है । यह प्रश्न उपस्थित तो पहले से ही था, चर्चित भी हुआ था, किन्तु आचार्य भिक्षु ने इस विषय पर बहुत गंभीर चिन्तन प्रस्तुत किया है । उन्होंने हिंसा और अहिंसा के संदर्भ में इस प्रश्न पर बहुत मंथन किया और उसका नवनीत भी प्रस्तुत किया । इस शताब्दी में वही प्रश्न दो महान् व्यक्तियों द्वारा चर्चित हुआ, एक गांधी और दूसरा मार्क्स । यह चर्चा राजनैतिक प्रणाली में हुई । राजनैतिक क्षेत्र में यह माना जाता था कि साधन-शुद्धि पर अधिक विचार करने की कोई जरूरत नहीं है। मार्क्स का दृष्टिकोण कोई नया नहीं था । मार्क्स ने साधन-शद्धि पर विचार किया है । उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि गलत साधनों का उपयोग कर लेना चाहिए। उन्होंने इस बात पर बल दिया है कि हमारे साधन शुद्ध होने चाहिए | साधन-शुद्धि पर उन्होंने बल अवश्य दिया, पर उसे एकान्ततः अनिवार्य नहीं माना । किन्तु उनके उत्तरवर्ती व्याख्याताओं एंजल्स और लेनिन ने इसमें अन्तर डाल दिया और अशुद्ध साधन को भी मान्यता दे दी ।
प्राचीन काल की राजनीति में भी साधन-शुद्धि की बात बहुत मान्य थी। वह मानती थी-राजनीति है, काम बनाना है, जैसे भी हो उसे साध लेना चाहिए | राजनीति का एक श्लोक है
_ 'उत्तम प्रणिपातेन, तुल्यं स्वस्यपराक्रमैः ।
नीचं स्वल्पप्रदानेन, शूरं भेदेन योजयेत् ।। सामने वाला व्यक्ति बड़ा हो तो उसके सामने नत हो जाओ । काम हो जाएगा । उससे भिड़ो मत | उसके समक्ष विनम्रता करो । वहां विनम्रता ही साधन होगा।
यदि सामने वाला पराक्रमी है, क्रूर है तो उसके सामने विनम्रता कार्यकर नहीं होती । वहां भेदनीति का सहारा लो | ऐसा भेद डालो कि काम बन जाए।
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