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२३६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
अशुद्धि का निर्णय होता है । यदि मनुष्य का साध्य है काम तो अर्थ उसका साधन होगा | साध्य जब काम है तो अर्थ को अशुद्ध साधन नहीं कहा जा सकता । काम की संपूर्ति का वह एकमात्र साधन है । वह साधन शुद्ध माना जाएगा, अशुद्ध नहीं । साध्य की अनुरूपता में यदि साधन का विचार किया जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता । अन्तर तब आता है जब साध्य कोई दूसरा होता है, साध्य के अनुरूप साधन नहीं होता है ।
एक आदमी को सवारी करनी थी, अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करना था । उसने घोड़ा मंगवाया । घोड़े पर सवारी करना बड़प्न का प्रदर्शन है। नौकर गया । घोड़ा नहीं मिला । उसने सोचा–सवारी ही तो करनी है । घोड़ा नहीं है तो क्या । खच्चर ले जाऊं। वह खच्चर ले आया । मालिक ने खच्चर को देखा । क्रोध का पारा चढ़ आया | नौकर को डांटा । नौकर बोला'मालिक ! चढ़ना ही तो है । सवारी ही तो करनी है | घोड़े पर भी जाया जा सकता है और खच्चर पर भी जाया जा सकता है | यात्रा दोनों पर हो सकती है।
साधन सही नहीं रहा । घोड़े का काम घोड़ा करता है और खच्चर का काम खच्चर करता है | साध्य था बड़प्पन का प्रदर्शन । यदि साध्य बड़प्पन का प्रदर्शन नहीं होता, केवल यात्रा ही होता तो घोड़ा भी साधन बन सकता था और खच्चर भी साधन बन सकता था और गधा भी साधन बन सकता था । कोई अन्तर नहीं आता । पर जब साध्य ही दूसरा था, बड़प्पन का प्रदर्शन था तो वहां घोड़ा ही साधन बन सकता था, खच्चर और गधा नहीं बन सकता था । जब साध्य दूसरा होता है और साधन दूसरा होता है तब साधन-शुद्धि और साधन-अशुद्धि की बात प्राप्त होती है ।
आचार्य भिक्षु ने साध्य और साधन की बहुत मीमांसा प्रस्तुत की है | उन्होंने इस संदर्भ में चार विकल्प प्रस्तुत किए---
१. साध्य शुद्ध, साधन अशुद्ध । २. साध्य अशुद्ध, साधन शुद्ध । ३. साध्य अशुद्ध, साधन अशुद्ध । ४. साध्य शुद्ध, साधन शुद्ध | इनमें प्रथम तीन विकल्प निष्पत्ति तक नहीं पहुंचाते । चौथा विकल्प
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