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साधन-शुद्धि का सिद्धान्त / २३५ दिया । पर एक बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण लिखी — 'काम बहुत जरूरी है, फिर भी हमें स्वीकार करना होगा कि चार पुरुषार्थों में धर्म और मोक्ष स्थविर हैं, बड़े हैं, ज्येष्ठ हैं।' इस कथन से वात्स्यायन ने धर्म और मोक्ष को प्रधानता दी ।
कुछ लोगों ने धर्म को मुख्यता देते हुए कहा, सब कुछ धर्म से हो जाता है । धर्म के दो अर्थ किए गए हैं । पुरुषार्थ-चतुष्टयी में धर्म का एक अंग है कानून | कानून का नाम है धर्म । न्यायालय का नाम है— धर्माधिकरण और न्यायाधीश का नाम है धर्मी । धर्म शब्द कानून के अर्थ में प्रचलित था । धर्म का दूसरा अर्थ है मोक्ष का साधन, आत्मा का साधन ।
चौथा पुरुषार्थ है मोक्ष, निर्वाण । जैन परंपरा, निर्ग्रन्थ परंपरा निर्वाणवादी परंपरा है। महावीर की स्तुति में कहा गया है— 'व्वाणवादीणिह णायपुत्ते' – निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र, नागपुत्र यानी महावीर श्रेष्ठ हैं । यह निर्वाण-प्रधान दृष्टिकोण रहा है ।
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ये चार दृष्टिकोण थे और इन चारों के आधार पर चार पुरुषार्थ निर्मित
हुए ।
इनमें एक युगल है काम और अर्थ का दूसरा युगल है धर्म और मोक्ष का । इन दोनों युगलों में एक साध्य है, दूसरा साधन । काम साध्य है, अर्थ साधन है । मोक्ष साध्य है, धर्म साधन है । एक साध्य और एक साधन | साध्य-साधन का चिन्तन भारतीय चिन्तनधारा का प्रमुख अंग रहा है। जब से इस पुरुषार्थ चतुष्टयी का निर्धारण हुआ तब से साध्य और साधन का चिन्तन होता रहा है । काम की सिद्धि होती है अर्थ के द्वारा । अर्थ के बिना काम की संपूर्ति नहीं हो सकती । व्यक्ति के मन में जितनी कामनाएं उभरती हैं, उनकी पूर्ति का एकमात्र साधन है अर्थ | अर्थ से 'काम' सिद्ध होता है | व्यक्ति की कामना है 'मोक्ष' | उसकी संपूर्ति धर्म के बिना नहीं हो सकती । धर्म मोक्ष का साधन बन जाता है । साध्य और साधन का चिन्तन बहुत पुराना है, पर प्रश्न है साधन की शुद्धि का । हम किसे शुद्ध साधन मानें और किसे अशुद्ध साधन मानें | बड़ा जटिल प्रश्न है | शुद्धि और अशुद्धि का नियामक तत्त्व कौन होगा ? उसकी कसौटी क्या होगी ? हम किस आधार पर कहेंगे कि अमुक साधन शुद्ध है और अमुक साधन अशुद्ध है ।
नियामक तत्त्व है— साध्य । साध्य के आधार पर साधन की शुद्धि और
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