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अहिंसा सार्वभौम और अणुव्रत / २४७ बड़ा होता है, उसका नियमन भी उतने ही शक्तिशाली बड़े शस्त्र से किया जा सकता है।
धर्म के क्षेत्र में अहिंसा की जो अवधारणा रही, वह वैयक्तिक अधिक थी । आज का आदमी सोचता है जागतिक भाषा में और यह एक विचारभेद भी है। किन्तु प्रश्न वहीं का वहीं स्थिर हो गया । क्या अहिंसा के विकास के बिना सार्वभौम या जागतिक अहिंसा का विकास संभव है ? __ प्रश्न होता है कि अहिंसा का प्रारंभ कहां से होगा ? एक वलय है । उसका आदि-बिन्दु नहीं खोजा जा सकता। वह कहीं से प्रारंभ नहीं हो सकता। वलय चक्राकार है, वर्तल है। उसका आदि-बिन्द नहीं मिलता। किन्त अहिंसा वलय नहीं है । वह एक सीधी रेखा है । रेखा का प्रारंभ-बिन्दु होता है । हर रेखा बिन्दुओं से निर्मित होती है। अहिंसा एक सीधी रेखा है । उसका आरंभ बिन्दु हमें खोजना है। अहिंसा का आरंभ बिन्दु है व्यक्ति । अहिंसा का आरंभ व्यक्ति से होता है । व्यक्ति-व्यक्ति से, बिन्दु-बिन्दु से एक रेखा बनेगी और वह रेखा बढ़ते-बढ़ते महारेखा बन जाएगी । महारेखा सार्वभौम और जागतिक होगी । अहिंसा सार्वभौम और जागतिक हो जाएगी। किन्तु क्या बिन्दु के बिना रेखा निर्माण किया जाना संभव होगा? कभी संभव नहीं है । अणुव्रत आन्दोलन का यह चिन्तन रहा है और इसी आधार पर अणुव्रत-अनुशास्ता ने एक सूत्र दिया- सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से, राष्ट्र स्वयं सुधरेगा | व्यक्ति सुधरेगा तो समाज सुधरेगा, समाज सुधरेगा तो राष्ट्र सुधरेगा, राष्ट्र सुधरेगा तो जगत सुधरेगा । हमें पहले बिन्दु को पकड़ना होगा । पहले बिन्दु को पकड़े बिना यदि अहिंसा सार्वभौम की बड़ी कल्पना को लेकर चलेंगे.तो बहुत सार्थक बात नहीं होगी ।
व्यक्ति की अपनी समस्या है | उसमें आसक्ति है, आवेश और आग्रह है । भय और प्रतिक्रिया है, असहिष्णुता और असंतुलन है । हिंसा के जितने बीज हैं, वे सारे के सारे प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान हैं । हिंसा के पनपने के लिए प्रत्येक व्यक्ति उर्वरा भूमि है । कोई भी व्यक्ति बंजर भूमि नहीं है । उस भूमि में हिंसा के हर बीज को बोया जा सकता है, पल्लवित और पुष्पित किया जा सकता है । यदि हिंसा के लिए व्यक्ति बंजर भूमि होता तो हिंसा का खतरा कभी नहीं बढ़ता । आज हिंसा का खतरा इसीलिए बढ़ा है कि
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