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८२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
भगवान् महावीर ने कहा- दो प्रकार के लोग होते हैं। कुछ लोग विस्तार रुचि वाले होते हैं और कुछ संक्षेप रुचि वाले होते हैं । कुछ थोड़े में बहुत समझ जाते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें एक मिनट में समझाई जाने वाली बात विस्तृत कर पचास मिनट में समझानी पड़ती है ।
मैंने एक शब्द में साधना का प्रयोजन बता दिया । अब मैं उसका बिस्तार से वर्णन करूं ।
प्रश्न था—साधना किसलिए? उत्तर में कहा जा सकता हैसाधना है-स्वास्थ्य के लिए । साधना है—सुख की प्राप्ति के लिए । साधना है—ज्ञानवृद्धि के लिए | साधना है—शक्ति-सम्पन्नता के लिए |
यह उस एक शब्द का विस्तार है । जहां निर्जरा होती है, गांठें खुलती हैं, वहां स्वास्थ्य और सुख मिलता है । वहां ज्ञान और शक्ति मिलती है । मनुष्य की सफलता के ये चार शिखर हैं । प्रत्येक व्यक्ति स्वास्थ्य चाहता है, सुख चाहता है, ज्ञान का विकास चाहता है और शक्ति से संपन्न होना चाहता है । साधना का यही फलित होता है कि इन चारों के विषय में जो हमारी भ्रांतियां हैं, वे मिटें । इन भ्रान्तियों से छुटकारा पाने के लिए साधना जरूरी है । हमारी भ्रान्ति है स्वास्थ्य के बारे में । हमारा दृष्टिकोण भ्रान्त है-- सुख के बार में, ज्ञान और शक्ति के बारे में । इन भ्रांतियों को मिटाना ही साधना का लक्ष्य है ।
हमने स्वास्थ्य और सुख- दोनों को नकारात्मक मान रखा है। इसलिए हम स्वास्थ्य खोजते हैं अपने से बाहर, सुख खोजते हैं अपने से बाहर तथा ज्ञान और शक्ति भी खोजते हैं अपने से बाहर ।
दृष्टियां दो हैं । एक है--विधायक दृष्टि और दूसरी है---- नकारात्मक दृष्टि | पोजिटिव और नेगेटिव, धनात्मक और ऋणात्मक । ये दोनों शक्तियां सारे संसार में काम कर रही हैं । जब दोनों शक्तियां मिलती हैं तब विद्युत का प्रकाश प्राप्त होता है । केवल पोजिटिव करंट या नेगेटिव करंट से प्रकाश उपलब्ध नहीं होता । दोनों चाहिए | दोनों शक्तियां हैं ।
हमने केवल एक शक्ति को स्वीकार कर लिया, नेगेटिव या नकारात्मक
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