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स्थूल शरीर का आध्यात्मिक महत्त्व | २७ आज का मनौवैज्ञानिक कहता है कि दमन नहीं होना चाहिए। आज का प्रबुद्ध आदमी कहता है कि नियन्त्रण की कोई जरूरत नहीं । अच्छी बात है, दमन की कोई जरूरत नहीं है । नियन्त्रण की कोई जरूरत नहीं है | कुछ भी आवश्यक नहीं तो क्या हम एक ऐसे दरवाजे को खोल दें, हम ऐसी खिड़की को खोल दें जिसमें से भीतर में सिमटी हुई सारी शक्ति बाहर चली जाए ? क्या नाला खोल दें कि भीतर का सारा पानी बह जाए? मुझे लगता है, यदि हम भीतर के महत्त्व को समझ पाते, शरीर का मूल्य कर पाते तो यह नहीं होता कि नीचे का नाला तो खुला रहे और ऊपर का नाला बन्द हो जाए । दो स्रोत हैं हमारे शरीर में । शक्ति और आकर्षण के ये दो केन्द्र हैं । एक काम की शक्ति और दूसरी है ज्ञान की शक्ति । ज्ञान की शक्ति ऊपर रहती है, काम की शक्ति नीचे रहती है । नीचे के स्रोत में कामनाएं, वासनाएं, इच्छाएं, हिंसा, असत्य, चोरी की भावना—ये सारी वृत्तियां पैदा होती हैं । एक है ज्ञान का केन्द्र हमारे सिर में, जहां सारी निम्न वृत्तियां समाप्त हो जाती हैं । चेतना का विकास, ज्ञान का विकास, बुद्धि का विकास, उदारता, परमार्थ--यह महान् चेतना जहां पैदा होती है वह ऊपर का केन्द्र–सिर । आवश्यकता इस बात की थी कि हम शरीर का मूल्यांकन करते और नीचे की शक्ति को ऊपर की शक्ति के साथ मिलाकर महान् बना देते । किन्तु ऐसा नहीं हुआ। हमने काम का मूल्य समझा । हमने हीरे का मूल्य तो समझा, लेकिन थोड़ासा मोह बाकी रह गया कि कुछ मूल्य और कम हो जाए तो खरीद लूं । उस पांच रुपये ने समूचे हीरे को गंवा दिया ।
अभी हमने देखा कि बिजली नहीं थी, अंधेरा था । बिजली आयी, मद्धम प्रकाश, थोड़ी आयी, फिर पूरी ताकत के साथ आयी, सारा स्थान प्रकाशित हो गया । हमारे शरीर में भी बिजली है । बिजली नहीं होती है तो आदमी शून्य-सा हो जाता है | शरीर निकम्मा, इन्द्रियां निकम्मी, बुद्धि निकम्मी, सब कछ निकम्मा-सा बन जाता है। बिजली थोड़ी होती है तब टिमटिमाता है दीप । और जब बिजली शरीर में पूरी होती है तो आदमी जगमगाने लग जाता है ।
हमारे शरीर की विद्युत्, हमारी प्राण-ऊर्जा जितनी शक्तिशाली बनती है, उतना शक्तिशाली बनता है हमारा जीवन । शरीर का आध्यात्मिक मूल्यांकन है उस ऊर्जा की सुरक्षा करना, ऊर्जा को विकसित करना और
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