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________________ २४४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कानून कानून है । बल-प्रयोग बल-प्रयोग है । जब तक जनता का हृदयपरिवर्तन नहीं होगा, तब तक वास्तव में कृतार्थता नहीं होगी । यह अनुभव कर लिया गया है कि कानून के बल पर जनता को नहीं बदला जा सकता। कानून पर कानून बनाए गए । इतने कानून बना दिए गए कि कानूनों का अंबार लग गया । एक वकील की लायब्रेरी देखो तो ऐसा लगेगा कि बेचारा क्या करता होगा? कहां-कहां घूमता होगा? कितनी माथापच्ची करता होगा | कितनी कानून की नयी-नयी पुस्तकें आती रहती हैं । कैसे काम चलता होगा? इतना कानून होने पर भी, क्या अपराध कम हुए ? क्या चोरियां कम हुईं ? क्या डकैतियां कम हुईं ? क्या लूट-खसोट कम हुई ? सब कुछ वैसे ही चल रहा है | कानून अपना काम कर रहा है । चोर अपना काम कर रहे हैं । दोनों ने समझौता कर लिया कि तुम भी चलो, हम भी चलें । तुम भी जीओ और हम भी जीएं। ऐसा समझौता कर लिया कि अपराध भी चले और कानून भी चले । बराबर का समझौता हो गया । बल-प्रयोग से यदि अहिंसा होती तो काम बन जाता, हृदय बदल जाता तो साम्यवादी राष्ट्रों की सारी जनता बदल जाती । किन्तु साम्यवादी सूचनाओं के अनुसार यह ज्ञात होता है कि इतने वर्षों के सत्ता के नियन्त्रण के बाद भी आदमी नहीं बदला है। लाखों के घोटाले हो जाते हैं, मिलावटें हो जाती हैं, भ्रष्टाचार होता है साम्यवादी राष्ट्रों में । निर्वाण का मुख्य साध्य है—-आदमी बदले । निर्वाण का अर्थ है आदमी का बदलना | आदमी की वृत्तियों का बुझ जाना । आदमी की वृत्तियों का शान्त हो जाना | हमारे सामने साध्य है कि आदमी बदले, आदमी की वृत्तियां बदलें, दृष्टिकोण बदले, उसका चरित्र बदले । यह हमारा साध्य है । जब हृदय नहीं बदलेगा वे सारे कैसे बदलेंगे ? उनको बदलने का एकमात्र कोई साधन है तो वह है चैतन्य का जागरण । जब चैतन्य जागता है, हृदय का परिवर्तन होता है, तब ये सारी बातें बदल जाती हैं । यह काम न भय से हो सकता है और न बल-प्रयोग से हो सकता है और न आर्थिक प्रलोभन से हो सकता है । इस सारे संदर्भ में जब साधन-शुद्धि का विचार करते हैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना होता है कि अहिंसा का साधन हिंसा नहीं हो सकती । भय भी हिंसा है । बल-प्रयोग भी हिंसा है । सत्ता का प्रदर्शन भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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