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साधन-शुद्धि का सिद्धान्त | २४३
लेकर जा रही थी । लोगों ने देखा । वे आश्चर्यचकित रह गए । उन्होंने पूछाएक हाथ में झाडू और दूसरे में पानी से भरी बाल्टी से तात्पर्य क्या है ? राबिया बोली-धर्म के क्षेत्र में भय और प्रलोभन—-ये दोनों बड़ी बीमारियां हैं । मैं भय के कचरे को बुहार देना चाहती हूं और प्रलोभन की आग जो धधक रही है, उसे बुझा देना चाहती हूं |
स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय, पुण्य का प्रलोभन और पाप का भय-ये दोनों वास्तव में बीमारियां हैं।
महावीर ने कहा-नरक से मत डरो । स्वर्ग की कामना मत करो । जो कुछ भी करो, आत्मशुद्धि के लिए करो । निर्जरा के लिए करो | यह निर्वाण का सूत्र हो सकता है । निर्वाण का साधन है निर्जरा, यानी संस्कारों को क्षीण करना | पुण्य निर्वाण का साधन नहीं है और पाप भी निर्वाण का साधन नहीं है | भय भी निर्वाण का साधन नहीं है और प्रलोभन भी निर्वाण का साधन नहीं है । ऐसी विडम्बना हो गई कि अहिंसा के नाम से प्रलोभन दिया जाने लगा, आत्मप्रवंचनाएं की जाने लगीं।
इन सारे संदर्भो में आचार्य भिक्षु को बहुत चिन्तन करना पड़ा । उन्होंने एक बात बहुत महत्त्वपूर्ण बताई कि भय, बल-प्रयोग और प्रलोभन इनसे प्रतिक्रिया पैदा होती है । भय की अपनी प्रतिक्रिया है, बल-प्रयोग की अपनी प्रतिक्रिया है, प्रलोभन की अपनी प्रतिक्रिया है । वह प्रतिक्रिया हिंसा को जन्म देती है । छुड़ाने चले हिंसा को और हिंसा का और अधिक उपक्रम हो गया। इसलिए ये सारे साधन गलत हैं । फिर प्रश्न आया कि हिंसा को न छुड़ाएं? क्यों नहीं छुड़ाएं, छुड़ाना है । तो फिर प्रश्न हुआ-कैसे छुड़ाए : हिंसा से आदमी को कैसे बचाएं ? आचार्य जिने सूत्र दिया--अहिंसा का शुद्ध साधन है हृदय-परिवर्तन । हिंसा करने वाले का हृदय बदले । हिंसा करने वाले का चैतन्य जागे तो अहिंसा होगी । अहिंसा का और कोई भी उपाय नहीं है । एकमात्र उपाय है हृदय परिवर्तन । सामने वाले का हृदय बदले । हिंसा करने वाले का हृदय बदले तो अहिंसा सिद्ध होगी।
प्रक्रिया जटिल है हृदय-परिवर्तन की । किन्तु दूसरा और कोई उपाय भी नहीं है । अहिंसा कैसे हो सकेगी ? आज तो यह बात समझ में आने लग गई है । राजनीति के क्षेत्र में भी कि इस पर बहुत लिखा जाने लगा है।
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