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२.६२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
हम आज हर्ष से अधिक परिचित हैं, इसलिए प्रसन्नता को समझ नहीं पा रहे हैं।
एक आदमी की आकृति बहुत डरावनी थी । वह अपने मित्रों के बीच बैठा बात कर रहा था । मित्र ने कहा मेरा लड़का बहुत डरता है। उसने कहा—मेरा लड़ता तो बिलकुल ही नहीं डरता । मित्र ने कहा--तुम्हारी शक्ल को देखते-देखते वह डर का आदी हो गया । अब क्या डरेगा !
इसी प्रकार आदमी हर्ष और विषाद का आदी हो गया है । उसको प्रसन्नता को पहचान पाने में कठिनाई हो रही है । हम अध्यात्म की विषमता को प्राप्त करें, आत्मा को प्रसन्न करें, निर्मल करें । जैसे-जैसे हमारी निर्मलता बढ़ेगी, चित्त निर्मल होगा । हम यदि प्रिय-अप्रिय संवेदनाओं से दूर रहने का अभ्यास करेंगे तो निर्मलता का विकास होगा | प्रेक्षा का अर्थ है-देखना, अनुभव करना । इसके साथ एक बात और जुड़ी हुई है, प्रिय-अप्रिय संवेदनाओं से मुक्त होकर देखना और अनुभव करनां । यदि इस प्रेक्षा का दस-बीस मिनट प्रतिदिन अभ्यास होता है तो एक दिन ऐसा आ सकता है, जब प्रियता और अप्रियता, हर्ष और विषाद- दोनों नीचे चले जाएंगे और प्रसन्नता, चित्त की निर्मलता ऊपर आ जाएगी ।
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