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'चित्तायत्तं नृणां शुक्रं, शुक्रायत्तं च जीवितम् । तस्मात् शुक्रं मनश्चैव, रक्षणीयं प्रयत्नतः ॥
स्वास्थ्य और प्रसन्नता / २६१
हमारा पूरा जीवन चित्त के अधीन है, वीर्य के अधीन है। जिसने वीर्य को गंवा दिया, उसने जीवन के रस को गंवा डाला । इसलिए चित्त और वीर्य की रक्षा करना परम आवश्यक है । सारी इन्द्रियों की सुरक्षा एक ओर और मन तथा वीर्य की रक्षा एक ओर । इन्द्रियों की लोलुपता से भी वीर्य का क्षरण होता है, यह एक तथ्य है । यह बार-बार दोहराया जाता है कि आत्मा की रक्षा करो । आत्मा की क्या रक्षा करें ? इसका अर्थ बोध नहीं है । इसका तात्पर्य है— मन की रक्षा करो, वीर्य की रक्षा करो, चित्त की रक्षा करो ।
प्रसन्नता के लिए ब्रह्मचर्य की रक्षा बहुत जरूरी है । एक व्यक्ति मेरे पास आया और फूट-फूटकर रोने लगा। मैंने रोने का कारण पूछा । उसने कहा— पत्नी का वियोग हो गया। दूसरा विवाह नहीं किया । मन पर नियंत्रण नहीं रहा । अप्राकृतिक मैथुन की आदत पड़ गई । आज मेरी सारी शक्ति चुक गई है। सूना हो गया हूं। ऐसा अनुभव होता है कि 'मैं बीमार हूं । विस्मृति का रोग उभर गया है ।
"
यह एक व्यक्ति की कहानी नहीं है । ऐसे हजारों व्यक्ति हैं जो वीर्य क्षरण के भयंकर परिणाम भोग रहे हैं । दाम्पत्य-जीवन में भी जो अत्यधिक मैथुन का सेवन करते हैं, वे भी इन भयंकर परिणामों के शिकार होते हैं । सुकरात से पूछा गया - स्त्री - सहवास कितनी बार किया जाना चाहिए ? सुकरात ने कहा- जीवन में एक बार ।
'यदि वह संभव न हो तो ?'
'वर्ष में एक बार ।'
'यदि वह भी संभव न हो तो ?" 'महीने में एक बार ।'
'यदि वह भी संभव न हो तो ?' 'दिन में एक बार ।'
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'यह भी संभव न हो तो ?
'फिर सिर पर कफन बांध लो और जैसा चाहे वैसा करो !' प्रसन्नता की सबसे बड़ी बाधा है— अब्रह्मचर्य का सेवन |
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