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१४६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
नीचा न हो जाए।
इस सन्दर्भ में मूल समस्या है— बाहरी जगत् ।
भीतर का जगत् एक प्रकार का है और बाहर का जगत् दूसरे प्रकार का है । भीतर में बुराइयों के संस्कार हैं, बुरे विचारों के संस्कार हैं । जब वे संस्कार बाहर प्रकट होते हैं, तब अच्छा नहीं लगता । आदमी निरन्तर सोचता है, कोई दूसरा देख न ले । कोई दूसरा जान न ले । इस स्थिति में वह माया का जाल बुनता है, माया का निर्माण करता है । यह बहुत बड़ा संघर्ष है बाहर का और भीतर का । भीतर का दबाव है एक प्रकार का और बाहर का प्रदर्शन है दूसरे प्रकार का । वह बुराई करता है, पर दिखाना नहीं चाहता । यह बहुत बड़े भय का कारण है ।
एक क्रिश्चियन साध्वी थी । वह कपड़े पहनकर स्नान करती थी । लोगों ने पूछा- तुम एकान्त में, बन्द स्नानगृह में स्नान करती हो, फिर कपड़े पहने क्यों रहती हो ? उसने कहा- तुम नहीं जानते। वहां और तो कोई नहीं रहता, परन्तु प्रभु तो सर्वव्यापी है, वह तो सर्वत्र है । उसके सामने कपड़े कैसे खोलूं ? लोगों के सामने तो नग्न न होऊं तो क्या प्रभु के सामने नग्न हो जाऊं ?
प्रत्येक आदमी छिपाना चाहता है ।
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दो के संघर्ष में तीसरा तत्त्व पनपा । संघर्ष था भीतर और बाहर का और पनपी माया । जगत् का मूल रूप है— मायावी । मायाजाल या इन्द्रजाल दोनों पर्यायवाची शब्द हैं ।
दो प्रकार के पुरुष होते हैं—- मायावी और तथागत । तीर्थंकर का एक नाम है तथागत | बुद्ध का नाम भी तथागत है । तथागत का अर्थ है— जो वर्तमान में घटित होता है, उसे स्वीकार करने वाला । तथागत, यथार्थवादी, वीतराग- ये सब एकार्थक शब्द हैं । तथागत होना यानी वर्तमान को स्वीकार कर लेना । भीतर में यदि कामवासना की तरंग आ रही हो तो यह स्वीकार कर लेना कि क्रोध उठ रहा है । भीतर में यदि अहंकार की तरंग उठ रही ‘हो तो उसे स्वीकार कर लेना । जो बाहर के जगत् में जीता है, उसे सारी बातें स्वीकार कर चलना होगा । परन्तु आदमी स्वीकार नहीं करता वह अस्वीकार करता है । इसलिए उसके दो चेहरे बन गए। एक है यथार्थ का
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