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३४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता ने देखा कि यह तो मामला गड़बड़ है | आदमी बेईमान है । एक ओर तो इतना प्रवचन करता है और इतनी बातें बनाता है, इतने लच्छेदार उपदेश देता है, पुरोहित बना बैठा है, दूसरी ओर चोरी करता है । तत्काल अपने सिपाहियों को बुलाया कोषाध्यक्ष ने और कहा कि गिरफ्तार कर लो । गिरफ्तार हो गया । दूसरे दिन फिर राजसभा जुड़ी, पुरोहित को राजा के सामने प्रस्तुत किया गया । लोग बड़े आश्चर्य में पड़े—अरे ! राजपुरोहित और चोरी ! बात समझ में नहीं आयी । वह राजा के सामने खड़ा है । कोषाध्यक्ष ने सारी घटना सुनाई । राजा ने कहा—क्यों पुरोहितजी ! ठीक बात है ! उसने कहा- हां, महाराज ! बिलकुल सच है । कोषाध्यक्ष बिलकुल सही कह रहा है । राजा भी आश्चर्य में था ।
राजा ने कहा-बड़ा अपराध किया है, हमारी श्रद्धा पर चोट पहुंची है । श्रद्धा खण्डित हो गई है । हम क्या समझते थे, तुम क्या निकले । राजा ने आदेश दिया कि पुरोहितजी की बाएं हाथ की अंगुलियां काट दी जाएं | अंगुली काटने का दण्ड मिला ।
पुरोहित बोला—महाराज ! मुझे दण्ड मान्य है । किन्तु मेरी एक बात सुनें, सही घटना सुनें । मैंने सिक्के उठाए, पर मैं चोर नहीं हूं |
राजा ने कहा—यह और बुद्धिमानी की बात ! चोरी की, फिर भी स्वीकार नहीं कर रहे हो ।
वह बोला-सही बात यह कि मैं चोर नहीं हूं, चोरी करना नहीं चाहता था । मेरे मन में एक प्रश्न उठा, एक जिज्ञासा जागी कि मेरा इतना सम्मान है राज्य में । राजा भी मेरा सम्मान करता है, प्रजा भी मेरा सम्मान करती है । यह सम्मान ज्ञान का है या सदाचार का ? यह प्रश्न मेरे मन में उठा, परीक्षा करनी थी, परीक्षा हो गई। निष्कर्ष निकला कि सम्मान ज्ञान का नहीं, सम्मान सदाचार का है । अगर ज्ञान का होता तो मैं आज इस कटघरे में खड़ा नहीं होता | ज्ञान तो जितना कल था, उतना ही आज है मेरे पास . केवल सदाचार खण्डित हुआ, शील खण्डित हुआ और अंगुलियां काटने का आदेश हो गया । मैं चोर हो गया ।
सचाई सामने आ गई । राजा ने उसे मुक्त कर दिया । हम देखते हैं कि ज्ञान जहां है वहां पड़ा है । मस्तिष्क में ज्ञान पैदा होता
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