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चेतना का रूपांतरण : १
हमारी जीवन-यात्रा शाश्वत और अशाश्वत के बीच चल रही है । ऐसा कोई भी शाश्वत नहीं है जो अशाश्वत से भिन्न हो और ऐसे कोई भी अशाश्वत नहीं है जो शाश्वत से भिन्न हो । एक द्रव्य ही ऐसा है जो शाश्वत होता है । उसका अस्तित्व त्रैकालिक होता है । वह देशातीत और कालातीत होता है । किन्तु कोरा द्रव्य नहीं मिलता । प्रत्येक द्रव्य पर्याय के वलय से घिरा हुआ है । एक चक्र है पर्यायों का, रूपान्तरणों का । वहं निरन्तर चलता रहता है । शाश्वत और अशाश्वत को एकान्ततः बांटा नहीं जा सकता । वे दोनों इतने घुले-मिले हैं कि अशाश्वत को छोड़कर शाश्वत को नहीं देखा जा सकता
और शांश्वत को छोड़कर अशाश्वत को नहीं समझा जा सकता, उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती।
___ हमारा अस्तित्व और व्यक्तित्व इस शाश्वत और अशाश्वत की सीमा से बंधा हुआ है। हर व्यक्ति जिस क्षण में जन्म लेता है उसी क्षण से मरना प्रारम्भ कर देता है । जन्म से लेकर मृत्यु तक वह असंख्य पर्यायों में से गुजरता है । हम उनमें से स्थूल पर्यायों को ही पकड़ पाते हैं । हम जानते हैं—यह बालक हुआ, यह युवा हुआ, यह प्रौढ़ हुआ, यह बूढ़ा हुआ और यह मर गया । ये चार-पांच स्पष्ट पर्याय ही हमें ज्ञात हैं । कुछ आचार्यों ने मनुष्य की दस अवस्थाओं का उल्लेख किया है। उन्होंने सौ वर्ष की आयु के अनुपात से दस-दस वर्ष की दस अवस्थाएं बतलाई हैं । वे दस अवस्थाएं ये हैं—बाला, क्रीड़ा, मंदा, बला, प्रज्ञा, हायिनी, प्रपञ्चा, प्रारभारा, मृन्मुखी, शायिनी । ये सारी स्थूल अभिव्यक्तियां हैं । स्थूल जगत् में सौ वर्ष के आयुष्य वाले व्यक्ति की अवस्थाएं असंख्य हो जाती हैं | उनकी संख्या नहीं हो सकती, उनका
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