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________________ २२४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता प्राप्त है । फिर भी तुम इतने दुःखी क्यों ? उसने कहा-और तो सब कुछ है किन्तु एक बात से बहुत दुःखी हूं | मेरे पिता छोटे भाई को लेकर बहुत पक्षपात कर रहे हैं । इस बात से बहुत दुःखी हूं । सब कुछ होते हुए भी एक पक्षपात के कारण इतना बड़ा दुःख हो जाता है | आज की समस्या है पक्षपात । राजनीति के क्षेत्र में, वैचारिक क्षेत्र में और धर्म के क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या है पक्षपात । जो लोग चैतन्य-जागरण के अभिमुख हुए हैं उन्होंने सबको सावधान किया । राजनीति के क्षेत्र में राजनीति के विद्वानों ने राजनेता को सावधान किया कि यदि राज्य का सम्यक् संचालन करना है तो वह पक्षपात में न जाए । समान दृष्टि से सबको देखे | विचार के क्षेत्र में, दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र के उस श्लोक को नहीं भुलाया जा सकता "पक्षपातो ने मे वीरे न द्वेषःकपिलादिसु ! युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्य परिग्रहः ।।" महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नहीं है । कपिल आदि दार्शनिकों के प्रति मेरा द्वेष नहीं है । जिसका वचन मुझे युक्तियुक्त लगता है, उसे स्वीकार करने के लिए मैं तैयार हूं | उन्होंने तो आगे जाकर इतना तक कह दिया मैं महावीर को क्यों मानता हूं ! महावीर मेरे कोई चाचा नहीं हैं,दादा नहीं हैं, मेरे कोई सगे-संबंधी नहीं हैं । उनके साथ मेरा कोई पक्षपात नहीं है । केवल युक्ति के आधार पर मैं महावीर को स्वीकार करता हूं | विचार के क्षेत्र में भी इस बात पर बल दिया गया कि पक्षपात नहीं होना चाहिए | परमार्थ के क्षेत्र में और धर्म में भी जरूरी बात है। सबसे बड़ी युग की समस्या है पक्षपात । आज समस्या के समाधान के रूप में दो बातें बहुत साफ उभरकर सामने आ गई हैं—एक तटस्थता और दूसरी समता । तटस्थता का प्रयोग अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में निर्गुट राष्ट्रों के माध्यम से हो रहा है। दो मुख्य पक्ष बन गए हैं—एक साम्यवादी पक्ष और दूसरा पूंजीवादी पक्ष । तीसरा पक्ष है निर्गुट राष्ट्रों का, जो किसी पक्ष विशेष के साथ में जुड़े हुए नहीं हैं । तटस्थ रहना चाहते हैं। दोनों के बीच में एक संतुलन बनाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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