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५४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता 'मैं भी भूलोक से आया हूं | गाना सुनाना चाहता हूं। पहले मेरी बहन आयी थी, अब मैं आया हूं।' इन्द्र ने देखा—भाई और बहन का रूप-रंग तो मिलताजुलता-सा है | पहले बहन आयी थी, बहुत सुरीला कण्ठ था । सुन्दर गाना सुनाया था। अब इसका गायन सुन लें । इन्द्र ने कहा-'अच्छा, अपना गाना सुनाओ ।' सारे देवगण एकत्रित हो गए। कौवे ने गाना शुरू किया । एक क्षण में ही सारे सहम उठे । वे चिल्ला उठे—'बन्द करो, बन्द करो, हमारे कान फट रहे हैं, स्वर्ग के सभी किनारे कांप उठे हैं।' इन्द्र ने कहा—'अरे
ओ भूलोक के वासी ! बन्द करो अपना गाना | चले जाओ यहां से !' कौआ सकपका गया । हार तो नहीं मिला, तिरस्कृत हुआ । उसने इन्द्र से कहा'मैं जल्दी में था । अकेला ही यहां आ गया। साज-बाज लेकर नहीं आया । अन्यथा आप मेरे गायन पर मुग्ध हो जाते । मैं अभी भूलोक में जाता हूं। पूरा साज-सामान लेकर आता हूं।' इन्द्र ने पूछ लिया—'क्या साज-बाज है तुम्हारा ?' कौवे ने कहा
'खर प्रखर ध्वनि है जिसकी, ऊंट घोष निराला है ।
कुत्ते की तारीफ करूं क्या, जिसका स्वर मतवाला है। प्रभो ! मैं एक गधे, एक ऊंट और एक कुत्ते को स्वर्गलोक में ले आता हूं। इन सबके स्वरों के साथ मैं अपना स्वर मिलाकर गाऊंगा,तब आपको पूरे संगीत का मजा आएगा । आप तब देखेंगे कि क्या छटा बनती है और कैसे संगीत की स्वर-लहरियां उछलती हैं ।' इन्द्र ने कहा—'बस, रहने दो, रहने दो । चले जाओ यहां से । एक तुम्हारे स्वर से हमारा सारा देवलोक क्षुब्ध हो गया है । मैं धन्यवाद देता हूं मां पृथ्वी को जो तुम्हारे-तथा तुम्हारे साथियोंगधे, ऊंट, कुत्ते की बोलियां एक साथ सहती है । चले जाओ, यहां मत रहो !'
कौवे ने सोचा कोयल ने ठीक ही कहा था कि बोली को बदले बिना जहां भी जाओगे, वहां से निकाल दिए जाओगे। आदर नहीं मिलेगा । बदलना जरूरी है।
आत्मा को खोजने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्कयता नहीं है। परमात्मा की खोज के लिए कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। दोनों आपके
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