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चैतन्य-जागरण का अभियान / २२९
उस आचार-संहिता की दूसरी कड़ी है।
उन्होंने तीसरी कड़ी प्रस्तुत करते हुए कहा- उनके द्वारा दिया गया समाधान तुम्हारे बुद्धिगम्य हो तो तुम उसे बुद्धि से स्वीकार करो । यदि वह तुम्हारी बुद्धि में न बैठे तो तुम उसे श्रद्धा से स्वीकार कर लो । यदि वह तथ्य बुद्धिगम्य भी न हो और श्रद्धागम्य भी न हो तो तुम उसको लेकर खींचातान मत करो | उसे केवलीगम्य कर दो । यह सोचकर संतोष करो कि मैं केवली या सर्वज्ञ नहीं हूं | अतीन्द्रिय ज्ञानी नहीं हूं। मैं क्यों आग्रह करूं ? 'मुझे इसे आगे के चिन्तन के लिए छोड़ देना चाहिए | जिस दिन मेरा ज्ञान बढ़ेगा, अतीन्द्रिय क्षमताएं जागेंगी, मेरा चैतन्य और प्रबल होगा, उस दिन समाधान मिल जाएगा । आज ही पूरा समाधान हो जाए, यह आवश्यक नहीं है । उस वैचारिक आग्रह को, ममत्व को, चैतन्य की मूर्छा को हेतुभूत बनाओ । चैतन्यजागरण की प्रतीक्षा करो । खींचातान मत करो । वैचारिक क्षेत्र में यह ममत्वविसर्जन का महत्त्वपूर्ण सूत्र है।
अहिंसा के क्षेत्र में तेरापंथ ने जो नयी स्थापनाएं की वे चैतन्य-जागरण की दिशा में बहुत मूल्यवान् हैं । एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु से पूछा—कोई गाय हरी घास चर रही है। आप क्या करेंगे? उस गाय को वहां से हटाएंगे या नहीं ? घास में जीव है । वह सचेतन है । एक जीव दूसरे जीव को खा रहा है | गाय भी जीव है, घास भी जीव है। आप साधु हैं। आप छह जीवनिकायों के, सभी जीवों के रक्षक हैं । आप क्या करेंगे? गाय को वहां से हटाएंगे तो गाय को दुःख होगा और यदि नहीं हटाएंगे तो जीवों के प्रतिपालक कहां रहे !
आचार्य भिक्षु बोले—मैं गाय को नहीं रोकूँगा । उसने कहा—फिर आप छह जीव-निकायों के रक्षक नहीं रहे ।
आचार्य भिक्षु ने कहा—रोकने या हटाने में मैं अध्यात्म, अहिंसा या धर्म नहीं मानता | धर्म की मेरी कसौटी यह है, चैतन्य जागा या नहीं जागा ! हृदय बदला या नहीं बदला ! गाय का चैतन्य जाग जाए तो वह अपने आप वहां से हट जाएगी | गाय का चैतन्य यदि नहीं जागा है और मैं उसे वहां से हटाऊंगा तो वह अधर्म होगा, पाप होगा । यह मेरा कर्तव्य नहीं है | ___ आचार्य भिक्षु ने एक कसौटी रखी । कोई किसी को मारता है, कोई
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